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________________ कुवलयानन्दः १८२ संकोच पर्यायो यथा प्रायश्चरित्वा वसुधामशेषां छायासु विश्रम्य ततस्तरूणाम् । प्रौढि गते संप्रति तिग्मभानौ शैत्यं शनैरन्तरपामयासीत् ॥ अत्र शैत्यस्योत्तरोत्तरमाधारसंकोचात् संकोच पर्यायः । विकासपर्यायो यथा बिम्बोष्ठ एव रास्ते तन्वि ! पूर्वमदृश्यत । अधुना हृदयेऽप्येष मृगशावाक्षि ! दृश्यते ।। अत्र रागस्य पूर्वाधार परित्यागेनाधारान्तरसंक्रमणमिति विकास पर्यायः ।। ११० ।। सङ्कोच पर्याय होता है तथा जहाँ आधार का उत्तरोत्तर विकास हो वहाँ विकासपर्याय होता है । सङ्कोच पर्याय जैसे ग्रीष्म के ताप का वर्णन है । ग्रीष्म के कारण अब शीतलता नष्ट-सी हो गई है । पहले शीतलता समस्त पृथ्वी पर थी, धीरे धीरे सूर्योदय होने के बाद वह केवल वृक्षों की छायाओं में ही रह गई; और अब जब सूर्य अत्यधिक तेज से प्रकाशित होने लगा, तो वह धीरे धीरे पानी के बीच में जाकर छिप गई । यहाँ शैत्य के आधार क्रम से समस्त पृथ्वी, वृक्षों की छाया तथा जल हैं । यहाँ शैत्य के आधार का उत्तरोत्तर सङ्कोच पाया जाता है, अतः सङ्कोचपर्याय है। विकास पर्याय का उदाहरण निम्न है। :-- 'हे सुन्दरी, पहले तो यह राग (ललाई ) केवल तुम्हारे बिम्बाधर ( बिम्बफल के समान लाल अधर) में ही दिखाई देता था, हे हिरन के बच्चे के नेत्रों के समान नेत्र वाली, अब यह राग (अनुराग) तुम्हारे हृदय में भी दिखाई देने लगा है। यहाँ राग (ललाई, अनुराग ) ने पहले आधार (बिम्बोष्ठ ) को छोड़कर अन्य आधार (हृदय) में संक्रमण कर लिया है, जहाँ उसे बिम्बोष्ठ की अपेक्षा अधिक विकसित आधार मिला है, अतः यहाँ विकासपर्याय नामक भेद है। इस पद्य में 'राग' शब्द श्लिष्ट है। टिप्पणी- पण्डितराज जगन्नाथ ने रसगंगाधर में अप्पयदीक्षित के इसी उदाहरण को लेकर इसमें विकासपर्याय न मानते हुए लिखा है कि यह उदाहरण विकासपर्याय का नहीं है । ( पण्डितराज ने पर्याय के संकोच तथा विकास ये दो भेद भी नहीं माने हैं। पर्याय वहीं माना जा सकता है, जहाँ प्रथम आश्रय का संबंध नष्ट हो तथा अपर आश्रय का संबंध स्थापित हो । 'बिम्बोष्ठ एव रागस्ते' आदि में यह नहीं पाया जाता, नायिका के बिंबाधर का राग नष्ट हो गया है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मम्मट के द्वारा दिये गये उदाहरण 'श्रोणीबन्धः' आदि तथा रुय्यक के द्वारा उदाहृत पद्य 'नन्वाश्रयस्थितिरियं' इत्यादि में यही बात पाई जाती है। साथ ही इस अलंकार के लक्षण में प्रयुक्त 'क्रम' पद भी इसका संकेत करता है । अप्पयदीक्षित के इस उदाहरण में वस्तुतः 'सार' अलंकार हैं, जिसे रत्नाकर आदि आलंकारिक वर्धमानक अलंकार कहते हैं, अप्पयदीक्षित ने उस अलंकार का तो संकेत किया ही नहीं । 'यत्तु - बिम्बोष्ठ एव रास्ते.... ........." इति कुवलयानन्दकृता विकासपर्यायो निजगदे, तच्चिन्त्यम् । एकसम्बन्धनाशोत्तरमपर सम्बन्धे पर्यायपदस्य लोके प्रयोगात्, 'श्रोणीबन्धस्वजति तनुतां सेवते मध्यभागः' इति काव्यप्रकाशोदाहृते, 'प्रागर्णवस्य हृदये -' इत्यादिसर्वस्वकारोदाहृते च तथैव दृष्टत्वाच्च अस्मिन्नलङ्कारलक्षणेऽपि क्रमपदेन तादृशविवक्षाया
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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