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________________ व्याघातालङ्कारः द्वितीयो यथा (विद्ध० भ० १1१ ) - दृशा दग्धं मनसिजं जीवयन्ति दृशैव याः । विरूपाक्षस्य जयिनीस्ताः स्तुवे वामलोचनाः ॥ १०२ ॥ सौकर्येण निबद्धापि क्रिया कार्यविरोधिनी । १७३ दया चेद् बाल इति मय्यपरित्याज्य एव ते ।। १०३ ॥ कार्यविशेषनिष्पादकतया केनचित्सम्भाव्यमानार्थादन्येन कार्यविरोधिक्रियासौकर्येण समर्थ्यते चेत् सोऽपि व्याघातः । कार्यविरुद्धक्रियायां सौकर्यं कार - णस्य सुतरां तदानुगुण्यम् । यथा जैत्रयात्रोन्मुखेन राज्ञा युवराजस्य राज्य एव विरूपात महादेव को ( भी ) जीतने वाली उन वामलोचनाओं ( सुन्दरियों) की मैं स्तुति करता हूँ, जो शिव के द्वारा (तृतीय) नेत्र से जलाए हुए कामदेव को नेत्रों से ही पुनर्जीवित कर देती है । यहाँ शिव के नेत्र ने कामदेव को भस्म कर दिया, पर उसके प्रतिद्वन्द्वी सुन्दरीनेत्रों ने पुनः उसे जीवित कर, तद्विपरीतक्रिया कर दी । अतः यहाँ व्याघ्रात है । टिप्पणी- इस उदाहरण के सम्बन्ध में पण्डितराज जगन्नाथ ने एक पूर्वपक्षीमत का संकेत दिया है, जो यहाँ व्याघात अलंकार न मानकर इसका अन्तर्भाव व्यतिरेक अलंकार में ही मानते हैं । इस पूर्वपक्ष के मतानुसार व्याघात अलंकार वस्तुतः व्यतिरेक अलंकार का मूल है, अतः उसे स्वयं अलंकार मानना ठीक नहीं, क्योंकि किसी अलंकार का उत्थापक स्वयं भी अलंकार होता हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । व्याघात अलंकार के स्थल में नियमतः व्यतिरेक अलंकार फलरूप में अवश्य होता है । इस पूर्वपक्ष का उत्तर देते हुए सिद्धान्त पक्ष की स्थापना करते कहा गया है कि यद्यपि व्वाघात अलंकार सर्वत्र व्यतिरेक का उत्थापक है, तथापि हम देखते हैं कि प्राचीन आलंकारिकों ने कई ऐसे अलंकारों को जो अन्य अलंकारों से संबद्ध हैं, इसलिए पृथक अलंकार मान लिया है कि वे पृथक रूप से विच्छित्ति ( चमत्कार या शोभा ) विशेष के उत्पादक होते हैं, इसी तरह यहाँ भी व्याघातांश के विच्छित्तिविशेष जनक होने के कारण उसे व्यतिरेक से भिन्न अलंकार माना गया है । ( तस्मादलंकारान्तराविनाभूतालंकारान्तरवदिहाप्यवान्तरोऽस्ति विच्छित्तिविशेषोऽलंकारभेदक इति प्राचामुक्तिरेवात्र शरणम् । (रसगंगाधर पृ० ६१९ ) १०३ - इसी अलंकार के अन्य भेद का वर्णन करते हैं : -- जहाँ कारणानुकूल होने पर कवि क्रिया का इस प्रकार वर्णन करे कि वह अन्य व्यक्ति को अभिमत कार्य के विरुद्ध हो, वहाँ व्याघात का अन्य प्रकार होता है । जैसे, कोई राजा युवराज को बालक समझ कर अपने साथ युद्ध में नहीं ले जाना चाहता । इसी का उत्तर देते हुए राजकुमार कहता है कि यदि मुझे बालक समझ कर आप मेरे प्रति दया करने के कारण मुझे साथ नहीं ले जा रहे हैं, तो फिर मैं बालक होने के कारण अपरित्याज्य हूँ- मैं बालक हूँ इसलिये मुझे आपके द्वारा अकेला पीछे छोड़ा जाना भी तो ठीक नहीं । शेष कार्य के हेतु होने के कारण किसी हेतु के सम्भावित अर्थ से भिन्न कार्य की विरोधी क्रिया के कारण रूप में उसी हेतु का समर्थन करे, वहाँ भी व्याघात अलंकार होता है। किसी कार्य से विरुद्ध अन्य क्रिया में सौकर्य होने का तात्पर्य यह है कि कारण उस क्रिया के सर्वथा अनुकूल बन जाय । जैसे, जय के लिए प्रस्थित राजा ने जिस बाल्यावस्था को कारण मानकर युवराज के राज्य में ही रखने की सम्भावना की,
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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