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________________ समालङ्कारः १६३ यथा वा उच्चैर्गजैरटनमर्थयमान एवं त्वामाश्रयनिह चिरादुषितोऽस्मि राजन् !। उच्चाटनं त्वमपि लम्भयसे तदेव । मामद्य नैव विफला महतां हि सेवा । अत्र यद्यपि व्याजस्तुतौ स्तुत्या निन्दाभिव्यक्तिविवक्षायां विषमालंकारस्तथापि प्राथमिकस्तुतिरूपवाच्यविवक्षायां समालंकारो न निवार्यते । एवं यत्रेष्टार्थावाप्तिसत्त्वेऽपि श्लेषवशादसतोऽनिष्टार्थस्य प्रतीतिस्तत्रापि समालंकारस्य न क्षतिः । यथा शखं न खलु कर्तव्यमिति पित्रा नियोजितः । तदेव शस्त्रं कृतवान् पितुराज्ञा न लच्चिता ।। दीक्षित ने इस पर भी तीनो विषमों के प्रतिद्वन्द्वी तीन सम मानते हैं, पंडितराज जगन्नाथ भी सम को तीन तरह का मानते हैं, वे अलंकारसर्वस्वकार के इसी मत का उद्धरण देकर रुय्यक तथा उसके टीकाकार (विमर्शिनीकार जयरथ ) का खण्डन कहते करते हैं : 'तदुभयमसत्' वस्तुतोऽननुरूपयोरपि कार्यकारणयोः श्लेषादिना धर्मेक्यसंपादनद्वाराऽनुरूपतावर्णने, वस्तुतोऽनिष्टस्यापि तेनैवोपायेनेष्टैक्यसंपत्ताविष्टप्राप्तिवर्णने च चारुताया अनुपदमेव दर्शितत्वात् । तस्मात्सममपि त्रिविधमेव । ( रसगंगाधर पृ० ६०८ ) रसिकरंजनाकार गंगाधरवाजपेयी ने भी रुय्यक का खंडन किया है। अत्र सर्वस्वकारादयः प्रथमद्वितीयविषमप्रतिद्वन्द्विसमयो लंकारत्वम् । विच्छित्तिविशेषाभावात् । न खलु तन्तुपटयोर्गुणसाम्यवर्णने वा ओदनाथ पाकादौ प्रवृत्त्या ओदनादिनतिलम्भो वा काचिद्विच्छित्तिः। किंतु तद्वैपरीत्यमानं न कश्चिदलंकार इत्याहुः। वस्तुतस्तु, 'दवदहनादुत्पन्नो धूम' इत्यत्र 'आदौ हालाहलहुतभुजे'त्यादौ च विच्छित्तिविशेपस्यानुभूयमानस्य तन्तुपटादिसारूप्यस्याचमत्कारिमात्रेणापह्नवायोगात् 'उच्चैर्गजैरिति व्याजस्तुतावेव प्राथमिकस्तुतिरूपवाच्यकक्ष्यायां पाकादिप्रवृत्त्या ओदनसिद्धिप्रतिपादने विच्छित्त्यभा. वमात्रेण न विच्छित्तिहीयते । कविप्रतिभोत्थापितकार्यकारणसारूप्येष्टार्थसमुद्यमायत्तानि. विष्टविनाकृतेष्टप्राप्तेरलंकारत्वस्य चारुतातिशयशालितया अंगीकर्तुं युक्तत्वादिति दिक। ( रसिकरंजनी पृ० १६०) अथवा जैसे-कोई कवि राजा से कह रहा है:'हे राजन् , में तुम्हारे नगर में बड़े दिनों से तुम्हारे आश्रय में इसलिए पड़ा हूँ कि मैं उन्नत हाथियों पर बैठ कर घूमना चाहता हूँ। तुम भी अपने द्वारा प्रार्थित उच्चाटन (ऊपर घूमना, देशनिकाला) को मुझे दे रहे हो। सच है, बड़े लोगों की सेवा व्यर्थ नहीं जाती।' यहाँ यद्यपि व्याजस्तुति में स्तुति के द्वारा निंदा की व्यंजना विवक्षित होने पर विषम अलंकार पाया जाता है, तथापि सर्वप्रथम वाच्यार्थ के रूप में स्तुति की ही विवक्षा पाई जाती है और उसमें समालंकार का निवारण नहीं किया जा सकता। इसी तरह जहाँ इष्ट अर्थ की प्राप्ति होने पर भी श्लेष के कारण मिथ्या अनिष्टार्थ की प्रतीति हो, वहाँ भी सम अलंकार को कोई क्षति न होगी, जैसे 'शस्त्र कभी (ग्रहण) न करना' (न खलु कर्तव्यं) इस प्रकार पिता के द्वारा आदिष्ट
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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