SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथा वा विषमालङ्कारः www १५६ त्वद्वक्त्रसाम्यमयमम्बुजकोशमुद्राभङ्गात्ततत्सुषममित्र करोपक्लृप्त्या । लब्ध्वापि पर्वणि विधुः क्रमहीयमानः शंसत्यनीत्युपचितां श्रियमाशुनाशाम् ॥ अत्र ह्याद्यश्लोके सूर्यकिरणानां रात्रिष्वग्निप्रवेशनमागमसिद्धम् । सूर्यस्य निज किरणेषु भगवश्चरणकिरणसदृशारुणिमप्रेप्सया तत्कृतं तेषामग्नौ प्रतापनं परिकल्प्य तेषामुदयकालदृश्यमरुणिमानं च तप्तोद्धृतनाराचानामिवाग्निसंतापनप्रयुक्तारुणिमानुवृत्तिं परिकल्प्य सूर्यस्य महतापि प्रयत्नेन तात्कालिकेष्टावाप्तिरेव जायते, न सार्वकालिके ष्टावाप्तिरिति दर्शितम् । द्वितीयश्लोके चन्द्रस्य भगवन्मुखलमीं लिप्समानस्य सुहृत्वेन 'मित्र' शब्दश्लेषवशात् सूर्यं परिकल्प्य तत्कि - रणस्य कमलमुकुलविकासनं चन्द्रानुप्रवेशनं च सुहृत्पाणेर्भगवन्मुख लक्ष्मीनिधानकोशगृहमुद्रामोचनपूर्वकं ततो गृहीतभगवन्मुखलक्ष्मीकस्य तथा भगवन्मुखलक्ष्म्या चन्द्रप्रसाधनार्थं चन्द्रस्पर्शरूपं च परिकल्प्यैतावतापि प्रयत्नेन पौर्णमा अथवा जैसे हे भगवन्, यह चन्द्रमा कमलकोशरूपी भण्डार के बन्द ताले को तोड़कर उसकी शोभा को ग्रहण करने वाले अपने मित्र के हाथों (सूर्य की किरणों ) से किसी तरह पूर्णिमा के दिन आपके मुख की कान्ति को प्राप्त करके भी क्रमशः क्षीण होता हुआ अनीति के द्वारा बढ़ी समृद्धि को शीघ्र ही नष्ट होने वाली संकेतित करता है । प्रथम पद्य में सूर्यकिरणों का रात के समय अग्नि में प्रविष्ट होना वेदादि में वर्णित है ( तस्माद्दिवाग्निरादित्यं प्रविशति रात्रावादित्यस्तम् ) । यहाँ इस बात की कल्पना की गई है कि सूर्य अपनी किरणों में भगवान् के चरणों की किरणों के समान लालिमा प्राप्त करने की इच्छा से उन्हें अग्नि में तपाता है, साथ ही इस बात की भी कल्पना की गई है कि सूर्यकिरणों की सूर्योदय के समय दिखने वाली ललाई हाल में तपाये हुए आग से निकाले बाणों की तरह अग्नि-संतापन-जनित ललाई है । इस प्रकार सूर्य में भगवच्चरणकिरणकान्ति प्राप्त करने की इच्छा की कल्पना करके तथा सूर्यकिरणों की उदयकालीन ललाई में अग्नितापजनित लालिमा की कल्पना कर इस बात को दर्शाया गया है कि इतने महान् क्लेश को सहने के बाद भी सूर्य की इष्टावाप्ति केवल उतने ही समय ( प्रातःकाल भर ) के लिए होती है, सदा के लिए इष्टावाप्ति नहीं होती । इसी तरह दूसरे श्लोक में पहले तो भगवान् की मुखशोभा को प्राप्त करने की इच्छावाले चन्द्रमा के मित्र के रूप में मित्रशब्द के श्लेष द्वारा सूर्य की कल्पना कर, सूर्य की किरणों के कमलमुकुल विकासन तथा चन्द्रप्रवेश में मित्र के हाथ के द्वारा भगवन्मुखशोभा के स्थानभूत भाण्डार की मुद्रा के तोड़ने तथा वहाँ से भगवन्मुखशोभा को लेकर उसके द्वारा चन्द्रमा को खुश करने के लिए चन्द्रमा को उसे देने की कल्पना करके इस बात को दर्शाया गया है कि इतने प्रयत्न करने पर भी चन्द्रमा केवल पूर्णिमा के ही दिन भगवान् के मुख की समानता रूप इष्ट की प्राप्ति कर पाता है, न कि सदा के लिये उस इष्टसिद्धि को प्राप्त कर पाता है । ( अतः इन दोनों उदाहरणों में इष्टावासिपूर्वक इष्टानवाप्ति का वर्णन पाया जाता है | )
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy