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________________ विषमालङ्कारः ११७ केवलेष्टानवाप्तिर्यथा खिन्नोऽसि मुश्च शैलं विभृमो वयमिति वदत्सु शिथिलभुजः। भरभुमविततबाहुषु गोपेषु हसन् हरिर्जयति ॥ अत्र यद्यपि शैलस्योपरिपतनरूपानिष्टावाप्तिः प्रसक्ता, तथापि भगवत्कराम्बुजसंसर्गमहिना सा न जातेति शैलधारणरूपेष्टानवाप्तिमात्रम् । यथा वा लोके कलङ्कमपहातुमयं मृगाडो । जातो मुखं तव पुनस्तिलकच्छलेन । तत्रापि कल्पयसि तन्वि ! कलङ्करेखां, - नार्यः समाश्रितजनं हि कलङ्कयन्ति ।। अत्रानिष्टपरिहाररूपेष्टानवाप्तिः । यथा वा शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभे सानुग्रहो भगवता मयि पातितोऽयम् । कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो । बीजप्रहरोजननी दहनः करोति ।। अत्र परानिष्टप्रापणरूपेष्टानवाप्तिः। स्वतोऽनिष्टस्यापि मुनिशापस्य महाकेवल इष्टानवाप्ति का उदाहरण जैसे 'हे 'कृष्ण' तुम थक गये हो, इस पर्वत को छोड़ दो, हम सँभाले लेते हैं। इस प्रकार गोपों के कहने पर हाथ को ढीला कर, पर्वत के बोझे से टेढे हुए हाथ वाले गोपों को प्रति हँसते हुए कृष्ण की जय हो। यहाँ पर्वत के उपर गिरने से गोपों के लिए अनिष्ट प्राप्ति होनी चाहिए, किन्तु भगवान् कृष्ण के करकमल के संसर्ग के कारण यह अनिष्टप्राप्ति न हो सकी, अतः यह केवल पर्वत रूप इष्टानवाप्ति का उदाहरण है। . अथवा जैसे हे सन्दरि, यह चन्द्रमा संसार में अपने कलंक को मिटाने के लिए तेरा मुख बन गया, किन्तु तुम फिर तिलक के व्याज से इसमें भी कलंकरेखा की रचना कर रही हो। सच है, स्त्रियाँ अपने आश्रित व्यक्ति को कलंकित कर ही देती हैं। यहाँ अनिष्टपरिहाररूप इष्टानवाप्ति है। अथवा जैसे दशरथ श्रवण के अन्धे पिता से कह रहे हैं:-'हे भगवन् , पुत्र के मुखकमल को न देखने वाले मेरे प्रति जो अपने यह शाप दिया है, यह मेरे लिए कृपा ही है। इंधन से दीप्त अग्नि खेती के योग्य पृथ्वी को जलाते हुए भी उसे बीजाकुर की उत्पादक बनाता है। यहाँ तापस' दशरथ का अनिष्ट करना चाहते हैं, किन्तु उससे भी उसके इष्ट (दशरथ
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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