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________________ १५२ कुवलयानन्दः नेत्रेषु कङ्कणमथोरुषु पत्रवल्ली __ चोलेन्द्रसिंह ! तिलकं करपल्लवेषु ।। मोहं जगत्त्रयभुवामपनेतुमेत दादाय रूपमखिलेश्वर ! देहभाजाम् | निःसीमकान्तिरसनीरधिनामुनैव मोहं प्रवर्धयसि मुग्धविलासिनीनाम् ।। अत्राघोदाहरणे कङ्कणादीनामन्यत्र कर्तव्यत्वं प्रसिद्धमिति नोपन्यस्तम् । भवतिना भावनारूपा अन्यत्र कृतिरामिप्यत इति लक्षणानुगतिः ।। ८६-८७ ।। में कंकण (हाथ का आभूषण; पति की मृत्यु के कारण जल का कण अर्थात् अश्रुविन्दु), जाँघों में पत्रवली (कपोलफलक पर चित्रित की जाने वाली पत्रावली; तुम्हारे डर से भागकर जंगल में जाने के कारण जाँघों में अटकी जंगल की लताएँ) तथा करपल्लवों में तिलक (ललाट का शृङ्गार; मरे पतियों को जलांजलि देने के लिए तिल से युक्त जल) पाये जाते हैं। (यहाँ कंकण, पत्रवत्री तथा तिलक, नारियों के हाथ, कपोल तथा ललाट के शृङ्गार हैं, वे यहाँ न पाकर अन्यत्र आंख, ऊरुयुगल तथा करपल्लव में पाये जाते हैं, अतः दूसरी असंगति है।) (असंगति के तृतीय प्रकार का उदाहरण) __ हे कृष्ण, तुम तीनों लोकों के देहधारियों के मोह का अपहरण करने के लिए इस रूप को लेकर, अत्यधिक कान्ति के समुद्र इसी रूप के द्वारा सुंदरियों के मोह को बढ़ाते हो। (यहां कृष्ण ने समस्त लोकों के देहधारियों के मोह का अपहरण करने के लिए रूप को धारण किया है, किंतु उसी रूप से वे मोह को बढ़ा रहे हैं, अतः तीसरी असंगति है।) - यहाँ प्रथम उदाहरण में कंकणादि की रचना अन्यत्र करणीय है, इस बात का उपादान ('अपारिजातां' इत्यादि उदाहरण की तरह) पद्य में नहीं किया गया है। इतना होने पर भी 'भवन्ति' पद के द्वारा इसका अन्यत्र होना आदिप्त हो जाता है, अतः यहाँ द्वितीय असंगति के लक्षण की संगति बैठ जाती है। टिप्पणी-पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्पयदीक्षित के असंगति के इन दो भेदों के मानने का खण्डन किया है। उनके मतानुसार पहलो असंगति से 'अपारिजातां' इत्यादि वाली असंगति में कोई विलक्षणता नहीं है। इसी तरह 'नेत्रेषु कंकणं' वाले उदाहरण में विरोधी शृङ्गारों का सामानाचिकरण्य वर्णित है, अतः विरोधाभास अलंकार मानना ठीक है। इसी तरह 'गोत्रोद्धारप्रवृत्तो' वाले उदाहरण में भी 'विरुद्धात्कार्यसंपत्तिदृष्टा काचिद्विभावना' इस लक्षण के अनुसार विभावना का प्रकारविशेष ही दिखाई देता है, अतः यहाँ भी असंगति का तीसरा भेद मानना अनुचित है। 'मोहं जगस्त्रयभुवां' वाले उदाहरण में भी 'मोहजनकत्व' तथा 'मोहनिर्वर्तकत्व' इन दोनों विरुद्ध बातों का सामानाधिकरण्य वर्णित है, अतः यहाँ भी विरोधाभास ही है। __'य-, अन्यत्र करणीयस्य......"इति लक्षणानुगतिः' इति कुवलयानन्दकृताऽसं. गतेरन्यभेदयं लवयित्वोदाहृतम् , तत्र तावत् 'अपारिजाता..." इत्यत्र पारिजातराहि
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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