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________________ [ २३ उद्भावना तक का सवाल पैदा नहीं होता, श्रोता को 'संयोगादि के कारण केवल विवक्षित अर्थ की ही उपस्थिति होगी, अविवक्षित अर्थ की नहीं। किन्तु कभी-कभी कवि थर्थक पदों का प्रयोग किमी खास कारण से करता है, उसकी विवक्षा दोनों अर्थों में होती है। ऐसी स्थिति में भी दोनों अर्थों में तीन तरह का संबंध पाया जाता है : (१) या तो दोनों अर्थ समान महत्त्व के होते हैं, दोनों प्राकरणिक होते हैं। (२) या दोनों अर्थ अप्राकरणिक होते हैं तथा कवि किसी अन्य प्राकरणिक के उपमान के रूप में उन दोनों का प्रयोग करता है। (३)या इन अर्थों में एक प्राकरणिक होता है, मन्य अप्राकरणिक तथा उनमें परस्पर उपमानोप. मेय भाव की विवक्षा पाई जाती है। प्रश्न होता है, क्या इन अर्थों की प्रतीति अभिधा ही कराती है ? जहाँ तक प्रथम एवं द्वितीय स्थिति का प्रश्न है, किसी विवाद की गुजायश ही नहीं, क्योंकि वहाँ दोनों पक्षों में 'संयोगादि' के द्वारा 'अमिधा' शक्ति का व्यापार पाया जाता है। अतः वहाँ दोनों प्राकरणिक अर्थ या दोनों अप्राकरणिक अर्थ वाच्यार्थ ही होंगे। यही कारण है कि यहाँ सभी विद्वान् श्लेष अलंकार मानते हैं। किंतु क्या उस स्थल पर जहाँ एक अर्थ प्राकरणिक है तथा अन्य अप्राकरणिक, दोनों अर्थ वाच्यार्थ हैं ? क्या यहाँ भी श्लेष अलंकार है ? इस प्रश्न का उत्तर देते समय आलंकारिक दो दलों में बँट जाते हैं। अभिनवगुप्त, मम्मट, विश्वनाथ आदि शुद्ध ध्वनिवादियोंके मतानुसार यहाँ प्राकरणिक अर्थ ही वाच्यार्थ है, क्योंकि मभिधा शक्ति उसी अर्थ में नियंत्रित होती है। उसके नियंत्रित हो जाने पर भी जिस अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति होती है, वह अभिधा से नहीं हो सकती, क्योंकि अभिधा का व्यापार समाप्त हो चुका है, अतः यहाँ व्यजना वृत्ति माननी पड़ेगी। फलतः अप्राकरणिक अर्थ व्यंग्याथ है, वाच्यार्थ नहीं। अतः यहाँ श्लेष अलंकार भी नहीं हो मकेगा, अपितु शब्दशक्तिमूलक ध्वनि पाई जाती है। (मम्मटादि के मत के लिए दे०-टिप्पणी पृ० १००-१०१) ___ दीक्षित को यह मत मान्य नहीं। वृत्तिवार्तिक में दीक्षित ने विस्तार से व्यजनावादी के मत का खंडन करते हुए इस मत की स्थापना की है कि इस स्थल पर भी दोनों (प्राकरणिक तथा अप्राकरणिक ) अर्थ वाच्यार्थ ही है, हाँ उनमें परस्पर उपमानोपमेयभाव स्थापित करने वाला अलंकार अवश्य व्यंग्यार्थ माना जा सकता है। यही कारण है कि दीक्षित यहाँ भी श्लेष अलंकार मानते हैं। दीक्षित ने बताया है कि प्राकरणिक अर्थ में एक अभिधा के नियन्त्रित होने पर रिलष्ट शब्द अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति अभिधा से न कराते हों, ऐसा नहीं है, अपितु वे दोनों अर्थों की प्रतीति अभिधा से ही कराते हैं : 'तद्रीत्या न कथंचिदपि प्रकरणाप्रकरणादिनियमनं शक्यशङ्कम् । तस्मात् प्रस्तुताप्रस्तु. तोभयपरेऽपि प्रस्तुताप्रस्तुतोभयवाच्यार्थेऽभिधैव वृत्तिः। (वृत्तिवार्तिक पृ० १५) ___ इस संबंध में दीक्षित ने इस बात का भी संकेत किया है कि प्राचीन आलंकारिकों ने इस स्थल पर शाब्दी व्यञ्जना तथा ध्वनि क्यों मानी है ? वस्तुतः प्राचीन आलंकारिकों का यह अभिप्राय नहीं है कि दोनों अर्थ वाच्यार्थ नहीं है, वे केवल इस बात का संकेत करना चाहते हैं कि ऐसे स्थलों पर सदा उपमादि अर्थालंकार की व्यञ्जना अवश्य पाई जाती है और उस अंश में सदा ध्वनित्व होता है। उनका भाव यह कभी नहीं है कि अप्राकरणिक अर्थ में भी व्यजना व्यापार पाया जाता है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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