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________________ १४२ ww कुवलयानन्दः यथा वा प्रतीपभूपैरिव किं ततो भिया विरुद्धधर्मैरपि भेत्तृतोज्झिता । अमित्रजिन्मित्रजिदोजसा स यद्विचारदृक् चारहं गप्यवर्तत ॥ अत्र विरोधसमाधानोत्प्रेक्षाशिरस्को विरोधाभास इति पूर्वस्माद्भेदः || ६ || ३४ विभावनालङ्कारः विभावना विनापि स्यात् कारणं कार्यजन्म चेत् । अप्यलाक्षारसासिक्तं रक्तं तच्चरणद्वयम् ॥ ७७ ॥ क्रियादि तथा द्रव्य के साथ विरोध पाया जाता है । उदाहरण के लिए निम्न पद्य में 'जडीकरण' तथा 'तापकरण' क्रिया का विरोध अश्लिष्ट है । ( रुय्यक ने इसका नाम केवल विरोध दिया है | ) परिच्छेदातीतः सकलवचनानामविषयः, पुनर्जन्मन्यस्मिन्ननुभवपथं यो न गतवान् । विवेकप्रध्वंसादुपचितमहामोहगहनो, विकारः कोऽप्यन्तर्जडयति च तापं च कुरुते ॥ aft प्रथम सर्ग में नल का वर्णन है:- 'कवि उत्प्रेक्षा करता है कि क्या विरोधी राजाओं की तरह इस राजा नल से डर कर परस्पर विरोधी गुणों ने भी अपना विरोध छोड़ दिया ? क्योंकि राजा नल अपने तेज से मित्रजित् भी था साथ ही अमित्रजित् भी और चारदृक् भी था साथ ही विचारहक भी ।' ( यहाँ जो व्यक्ति मित्रजित है, वह अमित्रजित् ( मित्रजित् नहीं ) कैसे हो सकता है, साथ ही जो व्यक्ति चारहक है, वह विचारहरू (विगत चारहक, चारह से विहीन ) कैसे हो सकता है, अतः यह विरोध है। वस्तुतः यह विरोध की प्रतीति केवल आपाततः ही है । कवि का वास्तविक भाव 'मित्रजित्' से यह है कि वह तेज से 'सूर्य (मित्र) को जीतने वाला है' तथा 'अमित्रजित् ' का अर्थ यह है कि वह तेज से 'शत्रुओं को जीतने 'वाला है'। इस प्रकार इसका अर्थ न तो यही है कि नल तेज से सूर्य को जीतता भी है, नहीं भी जीतता है और न यही कि वह शत्रुओं और मित्रों दोनों को जीतता है । इसका वास्तविक अर्थ है : - 'राजा नल तेज से सूर्य तथा शत्रु राजा दोनों को जीतने वाला है'। इसी तरह 'चारक' से कवि का भाव यह है कि राजा नल 'गुप्तचरों की आँख वाला था' तथा 'विचारहक' का यह अर्थ है कि वह 'विचार की आँख वाला था । इसका यह अर्थ नहीं है, कि वह गुप्तचरों की दृष्टि वाला था तथा उनकी दृष्टि से रहित भी था । इस प्रकार इस अंश का वास्तविक ( परिहार वाला ) अर्थ है: - 'राजा नल समस्त राज्य की स्थिति का निरीक्षण गुप्तचरों के द्वारा किया करता था तथा हर निर्णय में विचारबुद्धि से काम लेता था' । यहाँ भी यह विरोध श्लेषमूलक ही है । ) इस उदाहरण में पहले वाले उदाहरण से यह भेद है कि यहाँ विरोधाभास के उदाहरण में विरोध के समाधान के लिए उत्प्रेक्षा प्रधान रूप में विद्यमान है । टिप्पणी- विरोधाभास का सामान्य लक्षण यह है : 'एकाधिकरण्येन प्रतीयमानयोः कार्यकारणत्वेनागृह्यमाणयोर्धर्मयोराभासनापर्यंत्रसन्नविरोधत्वं विरोधाभासत्वम् । ३४. विभावना अलंकार ७७ – जहाँ प्रसिद्ध कारण के बिना भी कार्योत्पत्ति का वर्णन किया जाय, वहाँ विभा वना अलंकार होता है | जसे, उस सुन्दरी के चरण लाक्षारस के बिना भी लाल हैं ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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