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________________ आक्षेपालद्वारा १३० तथापि विवक्षितप्रस्तुतार्थतायां न किंचिदसामञ्जस्यम् । अत एवास्य श्लोकस्याप्रस्तुततप्रशंसापरत्वमुक्तं प्राचीन:-'वाच्यासंभवेऽप्यप्रस्तुतप्रशंसोपपत्तेः' इति।।७२।। ३२ आक्षेपालङ्कारः आक्षेपः स्वयमुक्तस्य प्रतिषेधा विचारणात् । चन्द्र ! संदर्शयात्मानमथवास्ति प्रियामुखम् ॥ ७३ ॥ अत्र प्रार्थितस्य चन्द्रदर्शनस्य प्रियामुखसत्त्वेनानर्थक्यं विचार्याथवेत्यादिसू. चितः प्रतिषेध आक्षेपः। यथा वा___ साहित्यपाथोनिधिमन्थनोत्थं कर्णामृतं रक्षत हे कवीन्द्राः !। अलंकार माना है, क्योंकि यहाँ वाच्यार्थ के असंभव होने पर अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत की व्यंजना होने के कारण अप्रस्तुतप्रशंसा उत्पन्न हो ही जाता है। टिप्पणी-वाच्यासंभवेऽपि वाच्यसामंजस्यासंभवेऽपि । तथा च वाच्यार्थासामंजस्यमेवास्फुटेऽपि प्रस्तुतार्थे तात्पर्य गमयतीति भावः । ( चन्द्रिका पृ० १०१) चन्द्रिकाकार ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस पद्य में वाच्यार्थासामञ्जस्य ही वस्तुतः अस्फुट प्रस्तुत य॑ग्यार्थ को प्रतीति में सहायता करता है। क्योंकि जब हम देखते हैं कि पद्य का वाच्यार्थ पूरी तरह ठीक नहीं बैठता, तो हम सोचते हैं कि कवि का विवक्षित व्यंग्य अवश्य कोई दूसरा है, जिसमें असामंजस्य नहीं होगा और इस प्रकार हम व्यंग्यायप्रतीति की ओर अग्रसर होते हैं। ३२. श्राक्षेप अलंकार ___७३-जहाँ स्वयं कही हुई बात का, किसी विशेष कारण को सोच कर, प्रतिषेध किया जाय, उसे आक्षेप अलंकार कहते हैं। जैसे, हे चन्द्र, अपना मुख दिखाओ, अथवा ( रहने भी दो)प्रेयसी का मुख है ही। टिप्पणी-रुय्यक के मतानुसार आक्षेप की परिभाषा यों है, जो वस्तुतः दीक्षित के द्वितीय प्रकार के आक्षेप की परिभाषा है :उक्तवषयमाणयोःप्राकरणिकयोर्विशेषप्रतित्यर्थ निषेधाभास आक्षेपः । (अलंकार स० पृ० १४४ ) पंडितराज जगन्नाथ ने इसकी तत्तत् आलंकारिकों द्वारा सम्मत कई परिभाषाए दी हैं : (दे० रसगंगाधर पृ० ५६३-५६५) (यहाँ पहले चन्द्रदर्शन की प्रार्थना की गई है, किन्तु बाद में वक्ता को यह विचार हो आया है कि चन्द्रदर्शन से भी अधिक आनन्द्र प्रेयसी के वदन-दर्शन से प्राप्त हो सकता है, इसलिए चन्द्रदर्शन व्यर्थ है। अतः वह चन्द्र-दर्शन का निषेध करता है।) __यहाँ प्रार्थित मुख चन्द्रदर्शन की स्थिति प्रियामुख का अस्तित्व होने के कारण व्यर्थ है, इस बात को विचार कर 'अथवा' इत्यादि के द्वारा निषेध सूचित किया गया है, अतः यह आक्षेप है। अथवा जैसेविल्हण के विक्रमांकदेवचारत की प्रस्तावना के पथ हैं:'हे कवीन्द्रो, साहित्यरूपी समुद्र के मंथन से उत्पन्न काम्य की, जो कानों के लिए
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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