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________________ व्याजस्तुत्यनद्वारः १२६ . कः स्वधुनि बिवेकस्ते पापिनो नयसे दिवम् ॥ ७० ॥ साधु दूति ! पुनः साधु कतव्यं किमतः परम् । यन्मदर्थे विलूनासि दन्तैरपि नखैरपि ॥ ७१ ॥ निन्दया स्तुतेः स्तुत्या निन्दाया वा अवगमनं व्याजस्तुतिः । 'कः स्वधुनि' इत्युदाहरणे 'विवेको नास्ति' इति निन्दाव्याजेन 'गङ्गा सुकृतिवदेव महापात. कादिकृतवतोऽपि स्वर्ग नयतीति व्याजरूपया निन्दया तत्प्रभावातिशयस्तुतिः। 'साधु दूति' इत्युदाहरणे 'मदर्थे महान्तं क्लेशमनुभूतवत्यसि' इति व्याजरूपया स्तुत्या, 'मदर्थ न गतासि, किंतु रन्तुमेव गतासि; धिक्त्वां दूतिकाधर्मविरुद्धकारिणीम्' इति निन्दाऽवगम्यते । यथा वा कस्ते शौर्यमदो योद्धं त्वय्येकंसप्तिमास्थिते । सप्तसप्तिसमारूढा भवन्ति परिपन्थिनः॥ व्याजस्तुति पांच तरह की होती है । जहाँ एक की निन्दा से दूसरे की निन्दा प्रतीत होती है अर्थात् व्याजस्तुति के पश्चम भेद का विरोधी रूप प्रतीत होता है, वहाँ व्याजस्तुति पद का अर्थ ठीक नहीं बैठता, अत: उसे अलग से अलंकार माना गया है, जो वक्ष्यमाण व्याजनिन्दा अलंकार है। व्याज स्तुति अलंकार का सामान्य लक्षण यह है : 'व्याजनिन्दाभिन्नत्वे सति स्तुतिनिन्दान्यतरपर्यवसायिस्तुतिनिन्दान्यतमत्वं ब्याजस्तुतिस्वम्।' इस लक्षण में व्याजनिन्दा की अतिव्याप्ति रोकने के लिए ज्याजनिन्दा-भिन्नत्वे सति' का प्रयोग किया गया है। ___ १. हे गंगे, पता नहीं यह तेरी कौन सी बुद्धिमत्ता है कि तू पापियों को स्वर्ग पहुँचाती है। (निन्दया स्तुतिः) २. हे दूति, तूने बहुत अच्छा किया, इससे बढ़ कर और तेरा क्या कर्तव्य था कितू मेरे लिये दांतों और नाखूनों से काटी गई। (स्तुत्या निन्दा) जहाँ निन्दा के द्वारा स्तुति की व्यंजना हो अथवा स्तुति के द्वारा निंदा की, वहाँ व्याज स्तुति अलंकार होता है। 'कः स्वधुनि' इत्यादि श्लोकाध निन्दा के द्वारा स्तुति की म्यंजना का उदाहरण है, यहाँ 'तुझे बिलकुल समझ नहीं है' इस निन्दा के व्याज से इस भाव की व्यञ्जना कराई गई है कि 'गंगा पुण्यशालियों की तरह महापापियों को भी स्वर्ग पहुँचाती है' इस प्रकार यहाँ ब्याजरूपा निन्दा के द्वारा गंगा के अतिशय माहात्म्य की स्तुति व्यक्षित की गई है। 'साधु दूति' इस उदाहरण में 'तूने मेरे लिये बड़ा कष्ट पाया' यह स्तुति वाच्य है, इस व्याजरूपा स्तुति के द्वारा इस निन्दा की व्यञ्जना होती है कि 'तू मेरे लिए वहाँ न गई थी, किन्तु उस नायक के साथ स्वयं ही रमण करने गई थी, दती के कर्तव्य के विरुद्ध आचरण करने वाली तुझे धिकार है। (इनमें प्रथम 'निन्दा से स्तुति वाली व्याजस्तुति है, दूसरी स्तुति से निन्दा वाली।) इन्हीं के क्रमशः अन्य उदाहरण उपन्यस्त करते हैं: (निन्दा से स्तुति की व्यजना का उदाहरण) कोई कवि राजा की प्रशंसा कर रहा है:- अरे राजन् , तू वीरता का वर्ष क्यों करता है, ६ कुव०
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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