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________________ पर्यायोक्तालङ्कारः १२७ पर्यायोक्तं तदप्याहुर्यद्वथाजेनेष्टसाधनम् । यामि चूतलतां द्रष्टुं युवाभ्यामास्यतामिह ॥ ६ ॥ (भाव यह है, रुय्यक इस पद्य में प्रतीत व्यंग्यार्थ 'राहु का सिर काटना' रूप कारण मानते हैं, जो इस कार्य के द्वारा अभिहित किया गया है कि राहु की अपनी पत्नी के साथ की गई रति क्रीडा अब केवल चुम्बनमात्र रह गई, उसमें आलिंगनादि अन्य सुरतविधियाँ नहीं हो पाती। अभिनवगुप्त में जो उदाहरण तथा लक्षणयोजना पाई जाती है, उससे भी यही पता चलता है कि वे भी कार्यरूप वाचक से कारणरूप व्यंग्य के अभिधान में पर्यायोक्त ही मानते हैं । अप्पय दीक्षित इस मत से सहमत नहीं। वे 'राहुशिरश्छेद' को व्यंग्य मानने पर प्रस्तुतांकुर मानते हैं, क्योंकि यहाँ प्रस्तुत कार्य (चुम्बनमात्रावशेष रतोत्सव) से प्रस्तुत कारण (राहुशिरश्छेद) की प्रतीति हो रही है। अतः पर्यायोक्त अलंकार मानने पर हमें यह व्यग्य अर्थ मानना होगा कि यहाँ राहु को आलिंगनबन्ध्य बनाने वाले स्वरूप (इस वाच्य) के द्वारा भगवान् विष्णु की स्वयं की व्यंजना की गई है। यहाँ इतना संकेत कर देना आवश्यक होगा कि रुय्यक प्रस्तुतांकुर अलंकार नहीं मानते । अप्पयदीक्षित ने इसे नया अलंकार माना है।) ___ 'तथा च कार्येण विशिष्टरतोत्सवेन तस्कारणस्य राहुशिरश्छेदस्यावगमनं प्रस्तुतांकुर विषयः । आलिंगनवंध्यत्वापादकत्वरूपवाच्यस्योपपादनेन भगवतोऽवगमनं पर्यायोक्तस्य विषय इति भावः।' (रसिकरंजनी पृ० १४०) चन्द्रिकाकार ने दीक्षित की इस दलील को व्यर्थ बतलाया है, बल्कि वे कहते हैं कि दीक्षित के इस विवाद में केवल नवीन युक्तिमात्र है। दीक्षित का यह कहना कि भगवान् विष्णु की स्वरूपतः व्यंजना यहाँ चमत्कारी है तथा यही पर्यायोक्त का क्षेत्र है, ठीक नहीं है। क्योंकि पर्यायोक्त में चमत्कार व्यंग्य सौन्दर्यजनित न होकर भग्यंतर अभिधान ( वाच्यवाचक शैली से भिन्न शैली के कथन ) के कारण होता है । व्यंग्यार्थ तो प्रायः सभी जगह भंग्यंतराभिधान • के कारण सुन्दर होता ही है । अतः व्यंग्य का स्वयं का असौन्दर्य घोषित करना व्यर्थ है। वस्तुतः महत्त्व भंग्यन्तर अभिधान का ही है, उसी में चमत्कार है। साथ ही अप्पय दीक्षित को अपने ही उपजीव्य रुय्यक का विरोधप्रदर्शन शोभा नहीं देता। यदि दीक्षित ने यह विचार इसलिए प्रकट किया हो कि यह एक नई युक्ति है, तो रुय्यक के साथ युक्तिविरोध प्रदर्शित करना दीक्षित का परोत्कर्षासहिष्णुत्व ( दूसरे के उत्कर्ष को न सह सकने की वृत्ति ) स्पष्ट करता है। ___ यत्त भगवद्पेणावगमनं विशेषणमर्यादालभ्यत्वेन सुन्दरं पर्यायोक्तस्य विषय इतितदविचारितरमणीयम् । नहि पर्यायोक्तव्यंग्यसौन्दर्यकृतो विच्छित्तिविशेषः किन्तु भंग्यन्त. राभिधानकृत एव । व्यंग्य तु भंग्यंतराभिधानतः सुन्दरमेव प्रायशो दृश्यते । यथा 'इहागन्तव्यम्' इति विवक्षिते व्यंग्ये अयंदेशोऽलंकरणीयः, सफलतामुपनेतन्य' इत्यादौ । अत: स्तदसुन्दरत्वोद्भावनमकिंचित्करमेव । अलंकारसर्वस्वकारग्रन्थविरोधोद्भावनं तु तच्छिक्षाका. रिणं न शोभते । उपजीव्यत्वोद्भावनमपि ग्रन्थस्याकिंचित्करमेव । युक्तिविरोध इति परोत्कर्षासहिष्णुत्वमात्रमुद्भावयितुखगमयतीत्यलं विस्तरेण । ( चन्द्रिका पृ० ९५) ___ ६९-जहाँ किसी (सुन्दर ) बहाने (ब्याज) से (अपने या दूसरे के) इष्ट का संपादन किया जायं, अर्थात् जहाँ किसी सुन्दर बहाने से अपने या किसी दूसरे व्यक्ति का ईप्सित कार्य किया जाय, वहाँ भी पर्यायोक्त होता है । जैसे, (कोई सखी नायक नायिका को एक दूसरे से मिलाकर किसी बहाने वहाँ से निकलने का उपक्रम करती है) मैं आम्रलता को देखने जा रही हूँ, तुम दोनों यहाँ वैठे रहो।'
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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