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________________ [२१] उपकरणों का वर्णन नहीं किया है। उनका लक्ष्य प्रमुख रूप से अलंकारों तक ही रहा है, पर तिवार्तिक तथा चित्रमीमांसा के प्रस्तावनाभाग में क्रमशः शब्दशक्ति तथा काव्य के ध्वनि, गुणीभूतव्यंग्य एवं चित्रकाव्य नामक भेदों का संकेत अवश्य मिलता है । अप्पय दीक्षित तथा शब्दशक्ति : - वृत्तिवार्तिक में अप्पय दीक्षित की योजना अभिषा, लक्षणा तथा व्यंजना पर विशद विचार करने की थी, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ केवल प्रथम दो शक्तियों पर ही मिलता है । लक्षणा के प्रकरण के साथ ही यह छोटा-सा ग्रन्थ समाप्त हो जाता है। वृत्तिवार्तिक के प्रस्तावना श्लोकों से पता चलता है कि दीक्षित व्यञ्जना पर भी विचार करना चाहते होंगे ।' प्रस्तुत ग्रन्थ अधूरा क्यों रह गया इसके बारे में कुछ ज्ञात नहीं, किन्तु यह निश्चित है कि अप्पय दीक्षित ने वृत्तिवार्तिक तथा चित्रमीमांसा दोनों ग्रन्थों को पूरा लिखा ही न था । वृत्तिवार्तिक का आरंभ अभिधा शक्ति के प्रसंग से होता है । सर्वप्रथम अपने निश्चित संकेतित अर्थ की प्रतीति अर्थ वाच्यार्थ या मुख्यार्थं कहलाता है। इस प्रकार के ही 'अभिधा' कहा जाता है, अभिया का दूसरा नाम है कि शब्द में अपने संकेतित अर्थ को द्योतित करने की का सन्निवेश, नैयायिकों के मतानुसार ईश्वरेच्छा के 'अमुक शब्द से अमुक अर्थ का ग्रहण करना चाहिए' इस संकेत की सृष्टि करता है, जहाँ तक पारिभाषिक शब्दों का प्रश्न है, उनमें संकेत को कल्पना शास्त्रकारादिकृत होती है। दीक्षित ने इसीलिए अभिधा की परिभाषा यह दो है कि वहाँ शक्ति ( मुख्यावृत्ति ) से प्रतिपादित करने वाला ( प्रतिपादक ) व्यापार पाया जाता है । हम देखते हैं कि कोई भी शब्द कराता है। शब्द का यह निश्चित संकेतित मुख्यार्थ की प्रतीति कराने वाले व्यापार को 'शक्ति' भी है। शक्ति इसका नाम इसलिए क्षमता होती है । संकेत की इस शक्ति अनुसार होता है । ईश्वर ही सर्वप्रथम शक्त्या प्रतिपादकत्वमभिधा ॥ दीक्षित की यह परिभाषा ठीक नहीं जान पड़ती, शब्द व्यापार के नाम हैं, ऐसी स्थिति में 'शक्ति के क्योंकि शक्ति तथा अभिधा दोनों एक ही द्वारा प्रतिपादक होना अभिधा है' यह वाक्य अभिधा है' इस अर्थ की प्रतीति कराता है । दूसरे शब्दों में 'अभिवा के द्वारा प्रतिपादक होना अतः अभिधा की परिभाषा में यह कहना कि 'जहाँ अभिधा से अर्थ प्रतीति हो, वहाँ अभिधा होगी' कुछ विचित्र-सा लगता है। वस्तुतः यह परिभाषा दुष्ट है। तभी तो पंडितराज ने इस परिभाषा का खंडन करते हुए बताया है कि अप्पय दीक्षित को अभिधा की परिभाषा असंगत है। हम देखते हैं कि अभिधा के द्वारा किसी शब्दविशेष से साक्षात् संकेतित किसी अर्थविशेष का ज्ञान होता है, इस प्रकार दीक्षित के लक्षण में प्रयुक्त 'प्रतिपादक' शब्द का तात्पर्य है उस ज्ञान का हेतु होना । यह 'प्रतिपादकत्व' वस्तुतः शब्द में विद्यमान होता है, तो क्या हमें किसी शब्द में प्रतिपादकत्व है इतने से ज्ञान से अर्थं प्रतीति हो जाती है ? यदि ऐसा होता हो, तो फिर 'प्रतिपादकत्व मिधा' जैसा लक्षण बनाना ठीक होगा। यदि नहीं, तो 'प्रतिपादकत्व' का अर्थ यह लिया जाय कि जिस व्यापार से ऐसा लक्षण क्यों बनाया गया ? यदि वैसा ज्ञान हो सके ( प्रतिपत्त्यनुकूल ) १. वृत्तयः काव्यसरणावलंकारप्रबन्धृभिः । अभिधा लक्षणा व्यक्तिरिति तिस्रो निरूपिताः ॥ तत्र क्वचित्क्वचिद्वृद्धैर्विशेषानस्फुटीकृतान् । निष्टंकयितुमस्माभिः क्रियते वृप्तिवार्तिकम् ॥ ( वृतिवार्तिक पृ० १० )
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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