SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० कुवलयानन्दः अत्र वर्णनीयत्वेन प्रस्तुतायाः सीमन्तसरर्वदन सौन्दर्यलहरी परीवा हत्वोत्प्रेक्षणेन परिपूर्णतटाकवत्परीवाह कारणीभूता स्वस्थाने अमान्ती वदन सौन्दर्यसमृद्धिः प्रतीयते | सापि वर्णनीयत्वेन प्रस्तुतैव | यथा वा अङ्गासङ्गिमृणाल काण्डमयते भृङ्गावलीनां रुचं नासा मौक्तिकमिन्द्रनीलसरणि श्वासानिलाद्गाहते । दत्तेयं हिमवालुकापि कुचयोर्धत्ते क्षणं दीपतां तप्तायः पतिताम्बुवत्करतले धाराम्बु संलीयते ॥ नायिकाया विरहासहत्वातिशयप्रकटनाय संतापवत्कार्याणि मृणालमालिन्यादीन्यपि वर्णनीयत्वेन विवक्षितानीति तन्मुखेन संतापोऽवगम्यः । यत्र कार्यमुखेन कारणस्यावगतिरपि श्लोके निबद्धा, न तत्रायमलङ्कारः, किं त्वनुमानमेव यथा ( रत्ना० २।१२ ) - । यहाँ कवि के लिए देवी की सीमन्तसरणि का वर्णन वर्ण्य होने के कारण प्रस्तुत है, उस पर मुख सौन्दर्य की लहरों के परीवाह की उत्प्रेक्षा करने के कारण परिपूर्ण तडाग की तरह परीवाह की कारणभूत, अपने स्थान में नहीं समाती, वदनसौन्दर्यसमृद्धि की व्यञ्जना होती है । यह वदन सौन्दर्यसमृद्धि भी कवि के लिए वर्णनीय होने के कारण प्रस्तुत ही है। (इस प्रकार यहाँ परीवाह के रूप में उत्प्रेक्षित सीमन्तसरणि रूप कार्य के द्वारा उसके कारण वदनसौन्दर्यसमृद्धि की व्यञ्जना कराई गई है, अतः यहाँ कार्यकारणभावसम्बन्ध निबद्ध किया गया है। ) अथवा जैसे किसी नायिका के विरहताप का वर्णन है । 'इस नायिका के अंग से संसक्त मृणाल भरों की कांति को प्राप्त करता है (काला हो जाता है), इसके नाक का सफेद मोती श्वास के कारण इन्द्रनीलमणि की पदवी को प्राप्त हो जाता है, (विरहताप से उत्तप्त श्वास के कारण श्वेत मोती भी काला पड़ जाता है), इसके कुचस्थल पर रक्खा हुआ यह कर्पूर चूर्ण (हिमवालुका) भी क्षणभर में जल उठता है, तथा इसके करतल पर धारारूप में सींचा गया पानी तपे लोहे ( तपे तवे ) पर गिरे पानी की तरह एक दम सूख जाता है।' यहाँ नायिका के विरहासहत्वातिशय ( विरह उसके लिये अत्यधिक असह्य है ) को प्रकट करने के लिये, सन्तापयुक्त कार्य - मृणाल का मलिन होना आदि प्रस्तुतों का वाच्य रूप में प्रयोग किया गया है, उनके द्वारा यहाँ अन्य प्रस्तुत - नायिका का विरहसंताप व्यञ्जित होता है । ( कार्यकारणभावसम्बन्ध वाले प्रस्तुतांकुर से अनुमान अलंकार में क्या भेद है, इसे स्पष्ट करने के लिये कहते हैं :- - ) जहाँ कार्यरूप प्रस्तुत वाच्यार्थ के द्वारा कारण रूप प्रस्तुत व्यंग्यार्थ की प्रतीति हो, तथा कारणरूप प्रस्तुत का साक्षात् वर्णन कवि ने न किया हो, वहाँ तो प्रस्तुतांकुर अलंकार होता है, किन्तु ऐसे स्थल पर जहाँ कार्य के द्वारा प्रतीत कारण को भी कवि ने पद्य में निबद्ध किया हो, वहां यह अलंकार ( तथा अप्रस्तुतप्रशंसा भी) नहीं होगा, वहां अनुमान अलंकार का ही क्षेत्र होता है। जैसे निम्न पद्य में
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy