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________________ प्रस्तुताङ्करालङ्कारः २८ प्रस्तुताकुरालङ्कारः प्रस्तुतेन प्रस्तुतस्य द्योतने प्रस्तुताङ्कुरः । किं भृङ्ग ! सत्यां मालत्यां केतक्या कण्टकेद्धया ? ॥ ६७॥ यत्र प्रस्तुतेन वर्ण्य मानेनाभिमतमन्यत्प्रस्तुतं द्योत्यते तत्र प्रस्तुताङ्करा: लङ्कारः । उत्तरार्धमुदाहरणम् । इह प्रियतमेन साकमुद्याने विहरन्ती काचिद्भृङ्गं प्रत्येवमाहेति वाच्यार्थस्य प्रस्तुतत्वम् । न चानामन्त्रणीयामन्त्रणेन वाच्यासम्भवादप्रस्तुतमेव वाच्यमिह स्वरूपप्रस्तुतावगतये निर्दिष्टमिति वाच्यम् । मौग्ध्यादिना भृङ्गादावप्यामन्त्रणस्य लोके दर्शनात् । यथा ( ध्वन्यालोके ३।४१)कस्त्वं भोः ?, कथयामि दैवहतकं मां विद्धि शाखोटकं, वैराग्यादिव वक्षि ?, साधु विदितं, कस्मादिदं कथ्यते ? | २८. प्रस्तुतांकुर अलंकार ६७-जहाँ प्रस्तुतवृत्तान्त के द्वारा अन्य प्रस्तुतवृत्तान्त की व्यंजना हो, वहाँ प्रस्तुतांकुर अलंकार होता है । जैसे, हे भौंरे, मालती होते हुए काँटों से घिरी केतकी से क्या लाभ ? (यहाँ यह उक्ति उपवन में नायक के साथ विचरण करती नायिका ने किसी भौंरे से कही है, अतः भ्रमरवृत्तान्त प्रस्तुत है, इस प्रस्तुत भ्रमरवृत्तान्त के द्वारा अन्य प्रस्तुत नायकवृत्तान्त की व्यंजना हो रही है कि 'तुम्हारे लिए रूपवती मेरे रहते हुए अन्य रमणी व्यर्थ है'।) जहाँ प्रस्तुतपरक वाच्यार्थ के द्वारा कवि को अभीष्ट अन्य प्रस्तुत अर्थ की व्यंजना हो, वहाँ प्रस्तुतांकुर अलंकार होता है। उपर के पद्य का उत्तरार्ध इसका उदाहरण है। यहाँ प्रिय के साथ उपवन में विहार करती कोई नायिका भौरे से इस बात को कह रही है, इसलिए इस उक्ति का वाच्यार्थ भी प्रस्तुत है। यदि पूर्वपक्षी यह शंका करे कि यहाँ भृङ्गवृत्तान्त को प्रस्तुत कैसे माना जा सकता है, क्योंकि भृङ्ग को संबोधन करना नायिका को अभीष्ट नहीं है, फिर भी उसे संबोधित किया गया है, अतः 'अनामंत्रणीयामंत्रण' के कारण भृङ्ग को संबोधित करने के पक्ष में घटित होने वाला वाच्यार्थ तब तक असंभव सा है' जब तक कि वह अप्रस्तुत न माना जाय, इसलिये यहाँ भृङ्गवृत्तान्तरूप वाच्यार्थ को प्रस्तुत न मानकर अप्रस्तुत ही माना जाय तथा उसका प्रयोग प्रस्तुत नायकवृत्तान्त की व्यंजना के लिये किया गया है तो यह शंका करना व्यर्थ है। क्योंकि हम देखते हैं कि लोग मूर्खता आदि के कारण भृङ्गादि को भी संबोधित करते देखे जाते हैं और इस प्रकार भृङ्ग भी आमंत्रणीय (संबोध्य) सिद्ध होने पर प्रस्तुत माना जा सकता है। अतः यहाँ प्रस्तुत वाच्यार्थ से ही प्रस्तुतवृत्तान्त की व्यंजना पाई जाती है। उदाहरण के लिए निम्न पद्य में हम देखते हैं चेतन (कवि) तथा अचेतन (शाखोटक वृक्ष) का परस्पर प्रश्नोत्तर पाया जाता है, इसमें तिर्यक् जाति वाले अचेतन वृक्ष का संबोधन पाया जाता है, अतः तिर्यक-पशुपक्षिवृत्तादि-का आमंत्रण करना सर्वथा असंभव है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, वस्तुतः उनका आमंत्रण असंभव नहीं है। टिप्पणी-मम्मटादि प्रस्तुतांकुर अलंकार नहीं मानते, वे आगे उद्धृत पद्य में अप्रस्तुतप्रशंसा
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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