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________________ ११२ कुवलयानन्दः तया सह समुद्रं प्रविष्टानां तन्नखकान्तिलेशकणिकानां परिणामतया संभाव्यमानेन 'समुद्रनवनीत' पदवाच्येन चन्द्रेण कार्येण तन्नखकान्त्युत्कर्षः प्रतीयते । यथा वा अस्याद्गतिसौकुमार्यमधुना हंसस्य गर्वैरलं संलापो यदि धार्यतां परभृतैर्वाचंयमत्वव्रतम् | अङ्गानामकठोरता यदि दृषत्प्रायैव सा मालती कान्तिश्चेत्कमला किमत्र बहुना काषायमालम्बताम् ॥ अत्र नायिकागति सौकुमार्यादिषु वर्णनीयत्वेन प्रस्तुतेषु हंसादिगतगर्वशान्त्यादिरूपाण्यौचित्येन संभाव्यमानानि कार्याण्यभिहितानि । एतानि च पूर्वोदाहरण न वस्तुकार्याणि किन्तु तन्निरीक्षणकार्याणि । 'लज्जा तिरश्वां यदि चेतसि स्यादसंशयं पर्वतराजपुत्र्याः । तं केशपाशं प्रसमीक्ष्य कुर्युर्वालप्रियत्वं शिथिलं चमर्यः ॥ ' ( कुमार. १।४८ ) इत्युदाहरणान्तरे तथैव स्पष्टम् | 'अङ्गानामकठोरता' इति तृतीयपादे तु वणनीया है ये कणिकाएँ भगवान् के चरणकमलों के धावनजल, गंगा में अलक्तक की भाँति घुलमिल गई है तथा गंगा के साथ ही समुद्र में भी प्रविष्ट हो गई हैं; इनके परिणामरूप में 'समुद्रनवनीत' पद के द्वारा चन्द्रमा को संभावित किया गया है (यहाँ चन्द्रमा कान्तिकणिकाओं का फलत्व उत्प्रेक्षित किया गया है - फलोत्प्रेक्षा ) । इस प्रकार चन्द्रमा रूप अप्रस्तुत ( कार्य ) के द्वारा भगवान् के चरणनखों की कान्ति की उत्कृष्टता रूप प्रस्तुत (कारण) की व्यञ्जना की गई हैं । अथवा जैसे : --- किसी नवयौवना के सौन्दर्य का वर्णन है । : यदि इस सुन्दरी का गतिसौकुमार्य ( गति की सुन्दरता ) देख लिया, तो हंसों का घमण्ड व्यर्थ है, यदि इसकी वाणी सुन ली, तो कोकिला को मौन धारण कर लेना चाहिए, यदि इसके अंगों की कोमलता का अनुभव किया, तो मालतीलता पत्थर के समान है । और यदि इसकी कान्ति का दर्शन किया, तो लक्ष्मी को काषायवस्त्र धारण कर लेना चाहिए । यहाँ नायिका के गतिसौकुमार्यादि का वर्णन करना प्रस्तुत है, किंतु कवि ने उनके कार्य - हंसादि के गर्व का खन्डन करना आदि - की संभावना कर उनका वर्णन किया है । पहले उदाहरण में चन्द्रमा नखकान्ति रूप कारण का कार्य है जब कि इस उदाहरण में गति सौकुमार्यादि के दर्शन के कार्यरूप में हंसगर्वखण्डनादि कार्य पाया जाता है, यह इन दोनों उदाहरणों का भेद है। इसी तरह का निरीक्षणकार्यत्व निम्न उदाहरण में भी पाया जाता है : 'यदि पशु आदि प्राणियों के चित्त में भी लज्जा की भावना का उदय होता हो, तो निश्चय ही पार्वती के उस ( अत्यधिक सुंदर ) केशपाश को देखकर चमरी गायें अपने बालों के मोह को शिथिल कर लें । उपर्युक्त 'अस्याश्चेद्गतिसौकुमार्य' इत्यादि उदाहरण के तृतीय चरण में 'अंगानाम
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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