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________________ ११० कुवलयानन्दः ranxxxaamraormericanorammarwar ___अत्राप्राकरणिकचन्द्रकर्तृकतयोत्प्रेक्ष्यमाणेन लावण्यपुण्यनिचयविन्यासेन कारणेन तत्कार्यमनन्तकोटिचन्द्रलावण्यशालित्वमनन्यमुखसाधारणं भगवन्मुखे वर्णनीयतया प्रस्तुतं प्रतीयते। तथा हि-चन्द्रस्तावन्मत्त्रलिङ्गाद्धि-क्षयाभ्यामभेदेऽपि भेदाध्यवसायाद्वा प्रतिमासं भिन्नत्वेन वर्णितः । तेनातीताश्चन्द्रा अनन्तकोटय इति लब्धम् , कालस्यानादित्वात् । सर्वेषां च तेषामाकाशसमाश्रयणं श्लेषमहिना भगवच्चरणसमाश्रयणत्वेनाध्यवसितम् । भगवञ्चरणं प्रपन्नानां च देहक्षयोपस्थितौ परमपदप्राप्त्याभिमुख्यं, तदानीमेव स्वसुहृद्वर्गे स्वकीयसुकृतस्तोमनिवेशनं, ततः सूर्यमण्डलप्राप्तिश्चेत्येतत्सर्वे अतिसिद्धमिति तदनुरोधेन तेषां देहक्षयकालस्यामावास्यारूपस्योपस्थितौ सूर्यमण्डलप्राप्तेः प्राक्यप्रत्यक्षसिद्धं पुण्यत्वेन निरूपितस्य लावण्यस्य प्रहाणं निमित्तीकृत्य तस्य चन्द्रसादृश्यस्वरूपोपचस्तितत्सौहार्दवति भगवन्मुखे न्यसनमुत्प्रेक्षितम् । यद्यपि सुहृद्वहुत्वे तावदल्पपुण्यसंक्रमो भवति, तथाप्यत्र 'सुहृदि'इत्येकवचनेन भगवन्मुखमेव चन्द्राणां सुहृद्भूतं, न मुखान्तराणि चन्द्रसादृश्यगन्धस्याप्यास्पदानीनि भगवन्मुखस्येतरमुखेभ्यो व्यतिरेकोऽपि व्यञ्जितः । ततश्च तस्मिन्नेव सर्वेषां चन्द्राणां स्वस्वयावल्लावण्यपुण्यविन्यसनोत्प्रेक्षणेन प्राग्वर्णितः प्रस्तुतोऽर्थः स्पष्टमेव प्रतीयते | इसी को और अधिक स्पष्ट करके कहते हैं: यद्यपि चन्द्रमा एक ही है, फिर भी मन्त्र ('नवो नवो भवति जायमानः' इत्यादि मंत्र) के आधार पर अथवा वृद्धिक्षय के कारण अभेद होने पर भेदाध्यवसायस्पा अतिशयोक्ति के द्वारा प्रत्येक मास के चन्द्रमा को भिन्न भिन्न माना गया है। इससे प्राचीन काल के चन्द्रमा अनन्तकोटि सिद्ध होते हैं, क्योंकि काल अनादि है। साथ ही वे सभी चन्द्रमा आकाश में स्थित हैं, इसे श्लेष से भगवञ्चरणसमाश्रयत्व (वे भगवान् के चरणों में आश्रित हैं) के द्वारा अध्यवसित कर दिया गया है। भगवान् के चरणों में अनुरक्त व्यक्ति देहक्षय (मृत्यु) के समय परमपद (मोक्ष) की ओर उन्मुख होते हैं, उसी समय वे अपने मित्रवर्ग में अपने पुण्यसंचय का न्यास कर देते हैं, इसके बाद वे सूर्यमण्डल को प्राप्त होते हैं, ऐसा वेदसम्मत है। इसी के अनुसार कवि ने चन्द्रमाओं के देहक्षयकाल अर्थात् अमावास्या वाली दशा में सूर्यमण्डल में पहुँचने के पहले ही पुण्यत्व के द्वारा निरूपित लावण्य का त्याग रूप कारण बताकर उसका चन्द्रमा के समान स्वरूप के कारण, लक्षण से उसकी मित्रता वाले भगवान् के मुख में धरोहर रखना उत्प्रेक्षित किया है। यद्यपि किसी व्यक्ति के अनेक मित्र होने पर एक मित्र में बहुत थोड़ा पुण्य संक्रांत होता है, तथापि यहाँ कवि ने 'सुहृदि' इस एक वचन के प्रयोग के द्वारा इस व्यतिरेक अलंकार की भी व्यञ्जना कराई है कि चंद्रमाओं का मित्र केवल भगवान् का ही मुख है, दूसरे मुख तो चन्द्रमा की समानता की गन्ध के भी योग्य नहीं हैं, अतः भगवान् का मुख दूसरे मुखों से उत्कृष्ट है । इसके बाद भगवान् के मुख में ही समस्त चन्द्रमाओं के अपने अपने समस्त लावण्यपुण्य का विन्यास करने रूप क्रिया के उत्प्रेक्षित करने से (इस वृत्तिभाग में) पहले वर्णित प्रस्तुत अर्थ-भगवान् का मुख अनंतकोटि चन्द्रमाओं की सुंदरता वाला है तथा दूसरे मुखों से विशिष्ट है-स्पष्ट ही व्यंजित हो जाता है। यद्यपि 'स यावक्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छतीति' इत्यादि (पाद
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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