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________________ अप्रस्तुत प्रशंसालङ्कारः १०५ लङ्कार इति केचित् । उभयमपि शब्दालङ्कार इत्यन्ये । उभयमप्यर्थालङ्कार इति स्वाभिप्रायः । एतद्विवेचनं तु चित्रमीमांसायां द्रष्टव्यम् ॥ ६४-६५ ।। २७ अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः अप्रस्तुतप्रशंसा स्यात् सा यत्र प्रस्तुताश्रया । एकः कृती शकुन्तेषु योऽन्यं शक्रान्न याचते ॥ ६६ ॥ चमस्कार नष्ट हो जाय वहाँ शब्दश्लेष होता है, जब कि शब्दपरिवृत्ति से भी चमत्कार बने रहने पर अर्थश्लेष होता है । इस संबंध में एक बात और ध्यान में रखने की यह है कि मम्मटादि के मत से अर्थश्लेष में प्रकृतद्वय की प्रतीति कराने वाला विशेष्य है तथा विशेषण इस तरह के होते हैं कि उनकी परिवृत्ति कर देने पर भी चमत्कार बना रहता है। तथा उनका अनेकार्थकस्व लुप्त नहीं होता, इसी परिवृत्तिसहत्व के कारण उसे अर्थश्लेष कहा जाता है ) । अप्पयदीक्षित के मत में दोनों ही प्रकार के श्लेष - अभंगश्लेष तथा सभंगश्लेष- अर्थालंकार हैं। इस विषय का विशेष विवेचन हमारे अन्य ग्रन्थ चित्रमीमांसा में देखा जा सकता है । टिप्पणी- एष च शब्दार्थोभयगतत्वेन वर्तमानत्वास्त्रिविधः । तत्रोदात्तादिस्वरभेदास्प्रयत्नभेदाच्च शब्दान्यत्वे शब्दश्लेषः । यत्र प्रायेण पदभंगो भवति । अर्थश्लेषस्तु यत्र स्वरादिभेदो नास्ति । अत एव न तत्र सभंगपदत्वम् । संकलनया तूभयश्लेषः । ( अलंकार सर्वस्त्र पृ० १२३ ) 1 मम्मट ने सभंगइलेष तथा अभंगइलेष दोनों को शब्दइलेष माना है । रुय्यक के मत का खंडन करते समय वे बताते हैं :- 'द्वावपि शब्दकसमाश्रयौ इति द्वयोरपि शब्दश्लेषत्वमुपपन्नम् । न स्वाद्यस्यार्थश्लेषत्वम् । अर्थश्लेषस्य तु स विषयो यत्र शब्दपरिवर्तनेऽपि न श्लेषत्वखण्डना । ( काव्यप्रकाश - नवम उल्लास पृ० ४२४ ) मम्मट ने अर्थश्लेष वहीं माना है, जहाँ शब्दों में परिवृत्तिसहत्व पाया जाय, मम्मट ने अर्धश्लेष का उदाहरण यों दिया है : : उदयमयते दिङ्मालिन्यं निराकुरुतेतरां नयति निधनं निद्रामुद्रां प्रवर्तयति क्रियाः । रचयतितरां स्वैराचारप्रवर्तनकर्तनं बत बत लसत्तेजःपुंजो विभाति विभाकरः ॥ इस पद्य में विभाकर नामक राजा तथा सूर्य दोनों की अर्थप्रतीति हो रही है । काव्यप्रकाश की प्रदीपटीका के टीकाकार नागेश ने उद्योत में इस विषय पर विचार किया है । वे स्पष्ट कहते हैं कि यहाँ 'विभाकर' ( विशेष्य ) शब्द परिवृत्त्यसह है, तथा उस अंश में शब्दलेष है, किन्तु अनेक विशेषणवाची पदों में अर्थश्लेष होने के कारण यह अर्थश्लेष माना गया है। 'एवं च तदंशे परिवृत्य सहत्वेन शब्दश्लेषेऽप्युदयमित्यादिषु बहुष्वर्थश्लेषादुदाहरणत्वमित्याह - उदयमयत इत्यादीनीति । एतेन अर्थश्लेषे विशेषणानामेव श्लिष्टत्वं न तु विशेष्याणामपीत्यपास्तम् । केचित्तु 'विभाकरपदं शक्त्या सूर्य, नृपं योगेन बोधयतीत्येतदंशेऽप्यर्थश्लेषः परिवृत्तिसहत्वात्' इत्याहुः । यदि त्वत्र राजा प्रकृतो रविरप्रकृतस्तदा द्वितीयार्थस्य शब्दशक्तिमूलध्वनिरेवेति बहवः । उद्योत ( काव्यप्रकाश पृ० ४७६ ) २७. अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार ६६ - जहाँ अप्रस्तुतवृत्तान्त के वर्णन के द्वारा प्रस्तुतवृत्तान्त की व्यंजना कराई जाय,
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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