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________________ १०२ कुवलयानन्दः अस्ति चान्यत्रापि गूढः श्लेषः । यथा ( माघ ० ४।२९ ) - www.m अयमतिजरठाः प्रकामगुर्बीरलघु विलम्बि पयोधरोपरुद्धाः । सततमसुमतामगम्यरूपाः परिणत दिक्करिका स्तटीबिभर्ति | मन्दमग्निमधुरर्यमोपला दर्शितश्वयथु चाभवत्तमः । दृष्टयस्तिमिरजं सिषेविरे दोषमोषधिपतेरसंनिधौ ॥ पण्डितराज ने इसी संबन्ध में एक प्राचीन प्रमाण भी दिया है। योगरूढस्य शब्दस्य योगे रूढया नियन्त्रिते । धियं योगस्पृशोऽर्थस्य या सूते व्यञ्जनैव सा ॥ ( वही पृ० १४७ ) इस प्रकार के योगरूढिस्थल का उदाहरण यह है : - raarti श्रियं हृत्वा वारिवाहैः सहानिशम् । तिष्ठन्ति चपला यत्र स कालः समुपस्थितः ॥ इसी आधार पर पण्डितराज ने अप्पय दीक्षित के प्राकरणिक अप्राकरणिक दोनों अर्थों को वाच्य मानने का खण्डन किया है। इस सम्बन्ध में पण्डितराज इसी मत का संकेत करते हैं । 'वयं तु ब्रूमः - अनेकार्यस्थले प्रकृताभिधाने शक्तेरुक्तिसंभवोऽप्यस्ति । योगरूढिस्थले तु सापि दूरापास्ता ।' ( रसगंगाधर पृ० ५३४ ) (दे० रसगंगाधर पृ० ५३१ - ५३६ ) एक ऐसा भी मत है, जो ऐसे रिलष्ट स्थलों पर अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति का ही निषेध करता है । यह मत महिमभट्ट का है । वे ऐसे स्थलों पर अप्राकरणिक अर्थ की प्रतीति मानना तो दूर रहा 'वाच्यस्यावचनं दोष:' मानते हैं। 'अत्र ह्यावृत्तिनिबन्धनं न किञ्चिदुक्तमिति तस्य वाच्यस्यावचनं दोष:' ( दे० व्यक्तिविवेक पृ० ९९ ) इस प्रसंग के विशेष ज्ञान के लिए देखिए डा० भोलाशंकर व्यासः 'ध्वनि संप्रदाय और उसके सिद्धान्त' ( प्रथम भाग ) पंचम परिच्छेद ( पृ० १९२ - २२२ ) गूढश्लेष का प्रयोग केवल यहीं ( 'असावुदय' इत्यादि में ) नहीं है अन्यत्र भी पाया जाता है, जैसे निम्न पद्य में : माघ के चतुर्थ सर्ग से रैवतक पर्वत का वर्णन है : इस रैवतक पर्वत पर अनेकों ऐसी तलहटियाँ हैं, जो अत्यन्त कठोर, विशाल एवं लम्ब मेघों के द्वारा अवरुद्ध हैं, जिन पर दिग्गज अपने दाँतों से टेढ़ा प्रहार करते रहते हैं तथा जो प्राणियों के लिए अगम्य हैं । ( तटीपक्ष ) यहाँ ऐसी अनेकों वृद्धाएँ हैं, जो अत्यधिक वृद्धा तथा स्थूलकाय हैं, जिनके स्तन लटक गये हैं, तथा जिनके दशनक्षत और नखक्षत प्रकट हो रहे हैं, और जो युवकों की सुरतक्रीडा के अयोग्य हैं । ( वृद्धापक्ष ) ( यहाँ श्लेष अलङ्कार नहीं है, अपितु समासोक्ति अलङ्कार है, क्योंकि प्रकृत 'ती' पर अप्रकृत 'वृद्धा स्त्री' का व्यवहारसमारोप पाया जाता है। इस उदाहरण को दीक्षित ने गूढश्लेष के प्रसंग में इसलिए दिया है, कि यहाँ प्रकृत के लिए तत्तत् प्रयुक्त विशेषण लिष्ट हैं तथा उनकी महिमा से अप्रकृत अर्थ का व्यवहारसमारोप व्यक्त होता है । गूढश्लेष का एक और उदाहरण देते हैं। ) ओषधिपति चन्द्रमा के अभाव में सूर्यकान्तमणियों ने अपनी अग्नि को मन्द बना
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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