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कुवलयानन्दः
२० व्यतिरेकालङ्कारः
व्यतिरेको
विशेषश्चदुपमानोपमेययोः ।
शैला इवोन्नताः सन्तः किन्तु प्रकृतिकोमलाः ॥ ५७ ॥ अयमुपमेयाधिक्य पर्यवसायी व्यतिरेकः ।
यथा वा
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पल्लवतः कल्पतरोरेष विशेषः करस्य ते वीर ! | भूषयति कर्णमेकः परस्तु कर्णं तिरस्कुरुते || सन्म्यूनत्व पर्यवसायी यथा
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रक्तस्त्वं नवपल्लत्रैरहमपि श्लाध्यैः प्रियाया गुणै
स्त्वामायान्ति शिलीमुखाः स्मरधनुर्मुक्तास्तथा मामपि । कान्तापादतला हतिस्तव मुदे तद्वन्ममाप्यावयोः
सर्व तुल्यमशोक ! केवलमहं धात्रा सशोकः कृतः ॥
२०. व्यतिरेक अलंकार
५७ - यदि उपमान तथा उपमेय में परस्पर विलक्षणता (विशेष) पाई जाय, तो वहीँ व्यतिरेक अलंकार होता है । जैसे, सञ्जन पर्वतों के समान उन्नत, किन्तु प्रकृति से कोमल होते हैं ।
( यहाँ सज्जन उपमेय है, पर्वत उपमान । पर्वत स्वभावतः कठोर हैं, जब कि सज्जन प्रकृत्या कोमल हैं । इसलिए उपमेय में उपमान से विलक्षणता पाई जाती है । )
यह उदाहरण उपमेय के आधिक्य में पर्यवसित होने वाले व्यतिरेक का है ।
टिप्पणी- एवं किंचिद्धर्मप्रयुक्तसाम्यवत्तया प्रतीयमानयोः किंचिद्धर्मप्रयुक्तवैलक्षण्यं व्यतिरेकशरीरम् । वैलक्षण्यं तु क्वचिदुपमेयस्योत्कर्षे, क्वचिच्च तदपकर्षे पर्यवसन्नं, क्वचित्तु सदन्यतर पर्यवसान विर हेऽपि स्ववैचित्र्यविश्रान्तमात्रमिति बोध्यम् । (चन्द्रिका पृ० ६६ )
अथवा जैसे—
कवि किसी राजा की दानशीलता की प्रशंसा कर रहा है :- हे वीर, तुम्हारे हाथ में कल्पवृक्ष के पल्लव से यह बिशेषता (भेद ) पाई जाती है, कि वह तो (देवांगनाओं के) कान को सुशोभित करता है, जब कि तुम्हारा हाथ दानवीरता में (राधापुत्र ) कर्ण का तिरस्कार करता है ।
(इस उदाहरण में पहले उदाहरण से यह भेद है कि वहाँ उपमानोपमेय का सादृश्य 'उन्नतत्व' के द्वारा शाब्द है, यहाँ वह ( रक्तत्वादि ) आर्थ (गम्य ) है, साथ वह यहाँ कर्ण के लिष्ट प्रयोग पर भी आटत है । )
उपमेय की न्यूनता वाला व्यतिरेक जैसे निम्न पद्य में—
कोई विरही अशोक वृक्ष से कह रहा है : - 'हे अशोक, तुम पल्लवों के कारण लाल ( रक्त ) हो, मैं प्रेयसी के प्रशस्त गुणों के कारण अनुरक्त (रक्त ) हूँ, तुम्हारे पास भौंरे ( शिलीमुख) आते हैं, मेरे पास भी कामदेव के धनुष से छूटे बाण ( शिलीमुख ) आ रहे हैं, प्रेयसी का चरणाघात जिस तरह तेरे मोद के लिये होता है, वैसे ही मुझे खुश करता