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________________ ७८ कुवलयानन्दः चुडामणिपदे धत्ते बो देवं रविमागतम् । सतां कार्याऽऽतिथेयीति बोधयन् गृहमेधिनः ।। अत्र समागतं रवि शिरसा संभावयन्नुदयाचलः स्वनिष्ठया रविधारणक्रियया समागतानां सतामेवं गृहमेधिभिरातिथ्यं कार्यमिति सदर्थ बोधयन्निबद्ध इति सदर्थनिदर्शना । अत्र केचित् वाक्यार्थवृत्ति-पदार्थवृत्तिनिदर्शनाद्वयमसंभवद्वस्तुसंबन्धनिबन्धनमिति, तृतीया तु संभवद्वस्तुसंबन्धनिबन्धनेति च व्यवहरन्ति । तथा हि-आद्यनिदर्शनायां वाक्यार्थयोरैक्यमसंभवत्तयोः साम्ये पर्यवस्यति । द्वितीयनिदर्शनायामपि अन्यधर्मोऽन्यत्रासंभवन धर्मिणोः साम्ये पर्यवस्यति । तृतीयनिदर्शनायां तु स्वक्रियया परान्पति सदसदर्थबोधनं संभवदेव समतां गर्मीकरोति । 'बोधयन् गृहमेधिनः' इत्यादौ हि 'कारीषोऽग्निरध्यापयति' इतिवत्समर्थाचरणे णिचः प्रयोगः। ततश्च यथा कारीषोऽग्निः शीतापनयनेन बटूनध्ययनसमर्थान्करोति एवं वर्ण्यमानः पर्वतः स्वयमुपमानभावेन गृहमेधिन उक्तबोधनसमथोन्कतु क्षमते | यथाऽयं पर्वतः समागतं रवि शिरसा संभावयति, (सदर्थनिदर्शना का उदाहरण निम्न है।) ___ 'उदय' पर्वत का वर्णन है । 'जो उदय पर्वत गृहस्थों को इस बात का बोधन कराता हुआ कि 'सजनों का अतिथिसत्कार करना चाहिए', अपने समीप आये सूर्य देवता को मस्तक पर धारण करता है।' यहाँ अपने घर आये सूर्य को शिर से आदर करता (सिर पर धारण करता) हुआ उदयाचल अपने में निष्ठ (अपनी) विधारणक्रिया के द्वारा इस सदर्थ का बोधन कराता वर्णित किया गया है कि घर आये सजन व्यक्तियों का गृहस्थों को अतिथिसत्कार करना चाहिए-इस प्रकार यहाँ सदर्थनिदर्शना पाई जाती है। कुछ आलंकारिक वाक्यार्थनिदर्शना तथा पदार्थनिदर्शना को असंभवद्वस्तुसंबधरूपा निदर्शना तथा इस तीसरे प्रकार की असत्सदर्थनिदर्शना को संभवद्वस्तुसंबंधरूपा निदर्शना मानते हैं । इस सरणि से पहली निदर्शना (वाक्यार्थनिदर्शना) में प्रस्तुताप्रस्तुत वाक्यार्थों का ऐक्य होना असंभव है, अतः यह वस्तुसंबंध उन दोनों के साम्य में पर्यवसित होता है। इसी तरह दूसरी (पदार्थवृत्ति) निदर्शना में एक (अप्रस्तुत) का धर्म अन्यत्र (प्रस्तुत में)होना असंभव है, अतः वह अप्रस्तुत तथा प्रस्तुत के साम्य की प्रतीति कराता है। तीसरी ( असत्सदर्थनिदर्शना) निदर्शना में अपनी क्रिया के द्वारा दूसरों के प्रति असत् या सत् अर्थ का बोधन कराना संभव है, अतः यह संभव होकर ही उनके साम्य की व्यंजना कराता है। 'बोधयन् गृहमेधिनः' में 'बोधयन्' रूप णिजंतपद का प्रयोग अचेतन पर्वत के साथ कैसे किया गया इस शंका का समाधान करने के लिए कहते हैं :-'बोधयन् गृहमेधिनः' इस वाक्य में 'कारीषोऽग्निरध्यापयति' (गाय के कंडे की आग बटुओं को पढ़ाती है) की तरह णिच् (प्रेरणार्थक) का प्रयोग समर्थाचरण के अर्थ में किया गया है। इसलिए, जैसे कारीष अग्नि बटुओं की ठंड मिटाकर उन्हें पढ़ने में समर्थ बनाती है, उसी तरह वयमान उदयाचल भी स्वयं उपमान के रूप में होकर गृहस्थों को उक्त अर्थ के बोधन में समर्थ बनाता है। बोध्य अर्थ यह है कि जिस तरह उदयाचल पास आये (अतिथि) सूर्य को सिर से धारण कर उसका आदर करता है, वैसे ही गृहस्थी को
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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