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________________ कुवलयानन्दः यथा वा कतिपयदिवसः क्षयं प्रयायात् कनकगिरिः कृतवासरावसानः । इति मुदमुपयाति चक्रवाकी वितरणशालिनि वीररुद्रदेवे ॥ अत्र चक्रवाक्याः सूर्यास्तमयकारकमहामेरुक्षयसंभावनाप्रयुक्तसंतोषासंबन्धेऽपि तत्संबन्धो वर्णितः ॥ ३४ ॥ टिप्पणी-स उदाहरण के सम्बन्ध में चन्द्रिकाकार ने एक शंका उठा कर उसका समाधान किया है। उनका कहना है कि 'सौधाग्राणि पुरस्यास्य स्पृशंतीवेंदुमण्डलम्' पाठ रखने पर 'स्व' के प्रयोग से यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार हो जाता है । अतः 'स्पृशंति विधुमण्डलम्' वाले पाठ में इवादि के अप्रयोग वाली गम्योत्प्रेक्षा क्यों नहीं मानी जाती है क्योंकि हम देखते हैं कि जहाँ इवादि का प्रयोग होने पर वाच्योत्प्रेक्षा होती है, वहीं इवादि के अप्रयोग में गम्योत्प्रेक्षा होती है। साथ ही ऐसा न मानेंगे तो गम्पोत्प्रेक्षा के उदाहरण 'त्वत्कीर्तिभ्रमणशांता विवेश स्वर्गनिम्नगाम्' में भी गम्योत्प्रेक्षा न हो सकेगी। ___ चन्द्रिकाकार ने इस शंका का समाधान यों किया है :-आपका यह नियम वहीं लागू होगा, जहाँ कोई अन्य ( उत्प्रेक्षा भिन्न ) अलंकार का विषय न हो। अगर ऐसा न माना जायगा, तो 'नूनं मुखं चन्द्रः' में वाच्योत्प्रेक्षा मानने पर 'नून के अप्रयोग पर 'मुखं चन्द्र में गम्योत्प्रेक्षा माननी पड़ेगी, जब कि यहाँ रूपक अलंकार होगा। इस स्थल में भी असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति का विषय है, अतः गम्योत्प्रेक्षा नहीं मानी जा सकती। साथ ही 'स्वत्कीर्तिः' वाले उदाहरण में गम्योत्प्रेक्षा हमने 'भ्रमणश्रांता' इस हेत्वंश में मानी है "स्वर्गंगाप्रवेशांश' में नहीं। ऊपर जिस शंका का संकेत कर चन्द्रिकाकार ने समाधान किया है, वह पंडितराज जगन्नाथ का मत है । (दे०रसगंगाधर पृ० ४२०-४२१ ) पंडितराज जगन्नाथ स्पष्ट कहते हैं कि असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति का उदाहरण ऐसा देना चाहिए जिसमें गम्योत्प्रेक्षा न हो सके। वे स्वयं अपने द्वारा उदाहृत पद्य का संकेत करते हैं, जो उत्प्रेक्षा से असंश्लिष्ट है। 'तस्मादुस्प्रेक्षासामग्री यत्र नास्ति तादृशमुदाहरणमुचितम् । ( वही पृ० ४२१) इसका शुद्ध उदाहरण पंडितराज का यह पद्य है। 'धीरध्वनिभिरलं ते नीरद मे मासिको गर्भः। उन्मदवारणबुद्धया मध्येजठरं समुच्छलति ॥ कोई शेरनी बादल से कह रही है-'हे बादल, गम्भीर ध्वनि न कर, मेरा एक महीने का गर्भ, यह समझ कर कि बाहर कोई मस्त हाथी चिघाड़ रहा है, पेट के भीतर उछल रहा है।' ___ यहाँ 'शेरनी के गर्भ का उछलना' इस असंबंध में भी उछलने रूप संबंध की उक्ति शेर के शौर्यातिशय की द्योतक है, अतः यह असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति है। (भत्र सिंहीवचने समुछलनाऽसंबंधेऽपि समुच्छलनसंबंधोक्तिः शौर्यातिशायिका।) (वही पृ० ४१६) इस उदाहरण में उत्प्रेक्षा सामग्री का सर्वथा अभाव है। इसका अन्य उदाहरण यह है : कोई कवि रुद्रदेव नामक राजा की दानवीरता का वर्णन करता है :'वीर रुद्रदेव के दानशील होने पर चक्रवाकी इसलिए प्रसन्न हो रही है कि अब दिन का अन्त करने वाला सुवर्ण का पर्वत ( मेरु) कुछ ही दिनों में समाप्त हो जायगा।' यहां 'सूर्यास्त को करनेवाला मेरु पर्वत शीघ्र ही समाप्त हो जायगा' इस सम्भावना के द्वारा प्रयुक्त चक्रवाकी के संतोष के असंबंध में भी उसके संबंध का वर्णन किया गया है। इसी को अन्य आलंकारिकों ने असंबंधे संबंधरूपा अतिशयोक्ति माना है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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