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________________ ४४ कुवलयानन्दः www. १३ अतिशयोक्त्यलङ्कारः swmm nmmmm रूपकातिशयोक्तिः स्यानिगीर्याध्यवसानतः । पश्य नीलोत्पलद्वन्द्वान्निःसरन्ति शिताः शराः ॥ ३६ ॥ विषयस्य स्त्रशब्देनोल्लेखनं विनापि विषयिवाचकेनैव शब्देन ग्रहणं विषयनिगरणं तत्पूर्वकं विषयस्य विषयिरूपतयाऽध्यवसानमाहार्यनिश्चयस्तस्मिन्सति रूपकातिशयोक्तिः । यथा नीलोत्पल - शरशब्दाभ्यां लोचनयोः कटाक्षाणां च ग्रहणपूर्वकं तद्रूपताध्यवसानम् | यथा वा वापी कापि स्फुरति गगने तत्परं सूक्ष्मपद्या सोपानालीमधिगतवती काञ्चनीमैन्द्रनीली । १३. अतिशयोक्ति अलंकार ३६ - जहां विषयी ( उपमान ) विषय (उपमेय) का निगरण कर उसके साथ अध्यवसान (अभेद ) स्थापित करे, वहां रूपकातिशयोक्ति अलंकार होता है । जैसे, देखो, नीलकमल से तीन बाण निकल रहे हैं । यहाँ सुन्दरी के नेत्रों (विषय) का नीलोत्पल (त्रिषयी) ने निगरण कर लिया है इसी तरह उसके कटाक्षों (विषय) का तीक्ष्ण बाणों (विषयी) ने निगरण कर लिया है। अतः यहाँ रूपकातिशयोक्ति अलंकार है । ) टिप्पणी- रूपकातिशयोक्ति का लक्षणपरिष्कार चन्द्रिकाकार के द्वारा यों किया गया है :'अनुपात्तविषयधर्मिका हार्यंनिश्चयविषयीभूतं विषय्यभेदताद्रूप्यान्यतरद्रूपकातिशयोक्तिः ।' यहाँ 'अनुपात्तविषयधर्मिक' विशेषण रूपक अलंकार का वारण करता है, क्योंकि वहाँ विषय (उपमेय) का उपादान होता है, 'आहार्यविषयीभूतं' पद से भ्रांतिमान् अलंकार का वारण होता है, क्योंकि यहाँ विषय में विषयी का ज्ञान कल्पित होता है, भ्रांति में वह अनाहार्य होता है, निश्चयविषयभूत पद से उत्प्रेक्षा का वारण होता है, क्योंकि उत्प्रेक्षा में संभावना होती है, निश्चय नहीं । उत्प्रेक्षा में विषय तथा विषयों को अभिन्नता साध्य होती है, जब कि अतिशयोक्ति में वह सिद्ध होती है, अतः यहाँ उसका निश्चय होता है । जहाँ विषय (उपमेय) का स्वशब्द से उपादान न किया गया हो और विषयी ( उपमान ) के वाचक शब्द के द्वारा ही उसका बोध कराया जाय, वहाँ विषयी के द्वारा विषय का निगरण कर लिया जाता है । इस विषय - निगरण के द्वारा विषय का विषयी के रूप में अध्यवसान होना आहार्यनिश्चय है, इस अध्यवसान के होने पर रूपकातिशयोकि अलंकार होता है । उदाहरण के लिए, कारिका के उत्तरार्ध में नीलोत्पल तथा शर शब्द विषयी (उपमान ) के वाचक हैं, इनके द्वारा नेत्र तथा कटाक्ष रूप विषयों (उपमेय ) का निगरण कर उनके रूप में उनकी अध्यवसिति हो गई है, अतः यहाँ रूपकातिशयोक्ति अलंकार है । इसका अन्य उदाहरण निम्न है। -- कोई कवि नायिका के अंगों का - मध्यदेश से लेकर मुख तक का वर्णन कर रहा है। आकाश ( आकाश के समान दुर्लच्य मध्यभाग ) में कोई अतिशय सुंदर ( बावली के समान गम्भीर नाभि ) सुशोभित हो रही है। उसके ऊपर इन्द्रनीलमणि से बनी एक
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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