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________________ रूपकालङ्कारः www.w श्रुतितात्पयविषयः, किंतु नलमुखचन्द्र एवेति ततोऽस्याधिक्यप्रतिपादनादधिकताद्रूव्यरूपकम् । रूपकस्य सावयवत्वनिरवयवत्वादिभेदप्रपञ्चनं तु चित्रमीमांसायां द्रष्टव्यम् ।। १७-२० ।। २१ मन्त्र का तात्पर्य प्रसिद्ध चन्द्र में न होकर नलमुख चन्द्र में ही है । इस प्रकार नलमुखचन्द्र प्रसिद्ध चन्द्र से उत्कृष्ट बताया गया है। यह अधिकताद्रूप्यरूपक का उदाहरण है । रूपक के सावयव, निरवयन, परम्परित आदि भी भेद होते हैं, इनका विस्तार चित्रमीमांसा में देखा जा सकता है । टिप्पणी- रूपक के अन्य प्रकार से आठ भेद होते हैं। सावयव रूपक के दो भेद होते हैं:१. समस्तवस्तुविषय, तथा २. एकदेशविवर्तिरूपक । निरवयव रूपक के भी दो भेद होते है:३. केवल निरवयव रूपक, तथा ४ माला निरवयव रूपक । परम्परित रूपक के प्रथमतः श्लिष्ट तथा अश्लिष्ट तदनन्तर दोनों भेदों के केवल तथा माला वाले दो-दो भेद होते हैं: - ५. केवल श्लिष्टपरम्परित, ६. मालाश्लिष्ट परम्परित, ७. केवल अश्लिष्ट परम्परित, तथा ८ माला अश्लिष्ट परम्परित । इनके चन्द्रिकाकार ने क्रमशः ये उदाहरण दिये हैं: १. समस्त वस्तुविषयसावयवः ज्योत्स्नाभस्मच्छुरणधवला बिभ्रती तारकास्थीन्यन्तर्धानव्यसन रसिका रात्रिकापालिकीयम् । द्वपाद्वीपं भ्रमति दधती चन्द्रमुद्राङ्कपाले न्यस्तं सिद्धांजनपरिमलं लाञ्छनस्यच्छलेन ॥ यहाँ ‘कापालिकी' के धर्म का आरोप 'रात्रि' पर किया गया है, साथ ही उसके अवयव 'भस्मादि' के धर्म का आरोप रात्रि के अवयव 'ज्योत्स्नादि' पर किया गया है, अतः यह समस्त वस्तुविषयसावयव रूपक है । २. एकदेशविवर्तिसावयवरूपकः प्रौढमौक्तिकरुचः पयोमुचां बिन्दवः कुटजपुष्पबन्धवः । विद्युतां नभसि नाट्यमण्डले कुर्वते स्म कुसुमांजलिश्रियम् । यहाँ 'आकाश' पर 'नाट्यमण्डलत्व' का आरोप किया गया है, इसके द्वारा 'बिजलियों' पर नर्तकीत्व का आरोप श्रौत न होकर आर्थ है, अतः एकदेश में होने के कारण यह एकदेशविवर्ती है । ३. केवल निरवयवरूपकः कुरंगीवांगानि स्तिमितयति गीतध्वनिषु यत्, सख कान्तोदन्तं श्रुतमपि पुनः प्रश्नयति यत् । अनिद्रं यच्चान्तः स्वपिति तदहो वेद्स्यभिनवां प्रवृत्तोऽस्याः सेक्तुं हृदि मनसिजः कामलतिकाम् ॥ यहाँ रूपक केवल ‘प्रेमलतिका' में ही है, जहाँ प्रेम पर लतात्व का आरोप किया गया है, अतः यह अमाला ( केवल ) निरवयव रूपक है । ४. मालानिरवयवरूपकः सौन्दर्यस्य तरङ्गिणी कान्तेः कार्मणकर्म विद्या वक्रगिरां तरुणिमोत्कर्षस्य हर्षोद्रमः नर्मरहसा मुलास नावासभूः । विधेरनधिप्रावीण्य साक्षात्क्रिया दाणाः पञ्चशिलीमुखस्य ललनाचूडामणिः सा प्रिया ॥ यहाँ 'प्रिया' पर तत्तत् विषयी पदार्थों का आरोप है, अतः यह निरवयव माला रूपक है ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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