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________________ कुवलयानन्दः स्तत्त्वं स त्वं कथय भगवन् ! को हतस्तत्र पूर्वम् ।। अत्र 'स त्वम्' इत्यनेन यः कंसकैटभयोर्हन्ता गरुडध्वजस्तत्तादात्म्यं वर्णनीयस्य राज्ञः प्रतिपाद्य तं प्रति कंसकैटभवधयोः पौर्वापर्यप्रश्नव्याजेन तत्तादात्म्य. दाढर्थकरणात्पूर्वावस्थात उत्कर्षापकर्षयोरविभावनाच्चानुभयाभेदरूपकम् । वेधा द्वेधा भ्रमं चक्रे कान्तासु कनकेषु च । तासु तेष्वप्यनासक्तः साक्षाद्भर्गो नराकृतिः ।। ___ अत्र साक्षादिति विशेषणेन विरक्तस्य प्रसिद्धशिवतादात्म्यमुपदर्य नराकृतिरिति दिव्यमूर्तिवैकल्यप्रतिपादनान्न्यूनाभेदरूपकम् | त्वय्यागते किमिति वेपत एष सिन्धुस्त्वं सेतुमन्थकृदतः किमसौ बिभेति । दीपान्तरेऽपि न हि तेऽस्त्यवशंवदोऽद्य त्वा राजपुङ्गव ! निषेवत एव लक्ष्मीः ।। था कि विष्णु ने पहले कैटभ दैत्य को मारा था, दूसरा कहता था कि विष्णु ने पहले कंस को मारा था। बताइये, इन विरोधी मतों में कौन सा मत सच है, कौन सा दैत्य (आपने) पहले मारा था। यहाँ 'स त्वम्' इस पदद्वय के द्वारा कंस तथा कैटभ के मारने वाले भगवान् विष्णु का वर्णनीय राजा के साथ तादात्म्य बताकर उससे यह पूछना कि उसने कंस तथा कैटभ में से पहले किसे मारा, उस तादात्म्य को और दृढ कर देता है, इस उक्ति में पूर्वावस्था (विष्णुरूप अवस्था) से राजावस्था के उत्कृष्ट या अपकृष्ट न बताने के कारण यह अनुभय कोटि का अभेदरूपक है। न्यूनत्वमय उक्ति वाले अभेदरूपक का उदाहरण निम्न है : 'ब्रह्मा जी ने स्त्रियों में तथा सुवर्ण में दो प्रकार का भ्रम उत्पन्न किया; किन्तु मनुष्य के रूप में स्थित यह (विरक्त मुनि के रूप में स्थित ) साक्षात् महादेव उन स्त्रियों तथा सुवर्ण-राशि में आसक्त नहीं है। ___ यहाँ 'साक्षात्' शब्द के प्रयोग से विरक्त मुनि तथा शिव के तादात्म्य को प्रदर्शित किया गया है, पर 'नराकृतिः' पद के द्वारा यह शिव दिव्यमूर्तिधारी नहीं हैं, इस प्रकार दिव्यमूर्ति की रहितता बताकर न्यूनता घोतित की गई है। यह न्यूनत्व-उक्ति वाला अभेदरूपक है। अधिकाभेदरूपक का उदाहरण निम्न है : कोई कवि किसी राजा की स्तुति कर रहा है। हे राजन् , तुम्हारे समुद्र तट पर जाने पर यह समुद्र क्यों कॉपता है। तुम इस समुद्र में सेतु बांधने वाले तथा इसका मंथन करने वाले (विष्णु) हो, ऐसा समझ कर यह क्यों डर रहा है ? तुम्हें सेतु बाँधकर किसी अन्य द्वीप को जीतने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अन्य द्वीपों में भी कोई (राजा) ऐसा नहीं है, जो तुम्हारा वशवर्ती न हो, साथ ही तुम्हें समुद्र का मंथन करने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम्हारी सेवा में लचमी पहले से ही विद्यमान है। विष्णु ने रामावतार में लङ्का को वश करने के लिए समुद्र का सेतुबन्धन किया था, तथा लचमी को प्राप्त करने के लिए समुद्रमंथन किया था। पर तुम्हारी ये दोनों इच्छाएँ पूर्ण हैं, अतः ष्णुरूप में स्थित तुमसे समुद्र का डरना व्यर्थ है।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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