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________________ १६ कुवलयानन्दः www विषय्युपमानभूतं पद्मादि, विषयस्तदुपमेयभूतं वर्णनीयं मुखादि । विषयिणो रूपेण विषयस्य रञ्जनं रूपकम् ; अन्यरूपेण रूपवत्त्रकरणात् । तच्च कचित्प्रसिद्धविषय्यभेदे पर्यत्रसितं क्वचिद्भेदे प्रतीयमान एव तदीयधर्मारोपमात्रे पर्यव - सितम् । ततश्च रूपकं तावद्विविधम्- अभेदरूपकं, ताद्रूप्यरूपकं चेति । द्वि इसका यह अर्थ है कि निदर्शना में वित्रप्रतिबिंबभाव होता है, रूपक में नहीं । पर हम देखते हैं कि बिंबप्रतिबिंबभाव रूपक में भी देखा जाता है। पंडितराज ने इसी आधार पर दीक्षित की चित्रमीमांसागत रूपक परिभाषा - जिसके आधार पर वैद्यनाथ ने ऊपरी लक्षण बनाया है - का खंडन किया है । वे कहते हैं: यदपि रूपके बिंबप्रतिबिंबभावो नास्तीत्युक्तं तदपि भ्रान्त्यव । ( रस० पृ० ३०२ ) पण्डितराज ने निम्न पद्य जयद्रथ की अलंकार सर्वस्वविमर्शिनी से उद्धृत किया है, जहाँ जयद्रथ ने रूपक में बिंबप्रतिबिंवभाव माना है। : कंदर्पद्विपकर्णकम्बु मलिनैर्दानाम्बुभिर्लान्छितं, संलग्नाञ्जनपुञ्जकालिमकलं गण्डोपधानं रतेः । व्योमानो कह पुष्पगुच्छ मलिभिः संछाद्यमानोदरं पश्यैतत् शशिनः सुधासहचरं बिम्बं कलङ्काङ्कितम् ॥ यहाँ चन्द्रबिंब तथा उसके कलंक क्रमशः कामदेव के हाथी का कर्णस्थ शंख तथा मदजल; रति के गाल का तकिया तथा कज्जल का चिह्न, एवं आकाशपुष्पस्तवक एवं भ्रमरसमूह तत्तत् विषयी के विषय हैं । यहाँ इनमें परस्पर विंबप्रतिबिंबभाव पाया जाता है । अतः स्पष्ट है कि रूपक में कभी कभी - विषय तथा विषयी में विंबप्रतिबिंबभाव भी हो सकता है । इस बात को दीक्षित के टीकाकार गंगाधर वाजपेयी ने भी स्वीकार किया है कि कभी- कभी रूपक में भी बिंबप्रतिविबभाव होता है। किंतु अप्पयदीक्षित ने रूपक के लक्षण में बिंवाविशिष्ट का प्रयोग इसलिये किया है कि यहाँ निदर्शना की तरह बिंबवैशिष्टय हो ही यह आवश्यक नहीं है, साथ ही हम देखते हैं कि निदर्शना में रञ्जन ( विषयीरूपेण विषय का रञ्जन ) भी नहीं पाया जाता, अतः जहाँ इस प्रकार का रञ्जन पाया जाता है, वहाँ विंबप्रतिबिंवभाव हो भी तो रूपक हो ही जायगा । अतः पण्डितराज का खण्डन व्यर्थ है । एतेन 'बिंबविशिष्टे निर्दिष्टे विषये यद्यनिह्नते । उपरञ्जकतामेति विषयी रूपकं तदा ॥' इति चित्रमीमांसायां ग्रन्थकृदुक्तं लक्षणमपि बिंबवैशिष्ट्यनियम राहित्यगर्भतया ताहगुपाधिमवघटिततया वा संगमनीयम् । अन्यथा उक्तदोषप्रसङ्गात् । अतो रसगंगाधरोक्तिर्नाद - र्तव्येति दिक् । (रसिकरंजनी पृ० ३६ ) विषयी का अर्थ है - उपमानभूत पद्म, चन्द्र आदि से विषय का अर्थ है । उपमेयभूत वर्ण्य विषय जैसे मुख आदि । जहाँ विषयी अर्थात् उपमान के रूप से विषय अर्थात् उपमेय को रंग दिया जाय, वहाँ रूपक अलङ्कार होता है । क्योंकि यहाँ किसी अन्य पदार्थ के रूप से किसी पदार्थ का रूप बना दिया जाता है । (यहाँ 'रञ्जन' शब्द का प्रयोग गौण अर्थ में पाया जाता है, जैसे लाल, पीले आदि रंग से रंगने पर वस्तु को अन्यथा कर दिया जाता है, वैसे ही अभेद तथा ताद्रूष्य के कारण अन्य ( विषयी ) वस्तु के धर्म से दूसरी ( विषय ) वस्तु भी उसके रूप को प्राप्त कर लेती है ।) यह विषय का विषयो के रूप में रंग देना दो प्रकार का होता है-कभी तो यह प्रसिद्ध ( कविपरम्परागत) विषयी ( उपमान ) के साथ विषय का अभेद स्थापित करता है; कभी विषयी तथा विषय का परस्पर भेद व्यंग्य होता है, तथा 'रअ' केवल इतना ही होता है कि विषयी के धर्मों का विषय पर आरोप
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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