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श्रध्यात्मविचारणा
आवृत होता है इतना ही । जो जीवात्मा योग्य साधना द्वारा इन आवरणोंको सर्वथा दूर करता है वह स्वयं ही विशुद्ध ब्रह्मस्वरूप बन जाता है । अतएव जैनदृष्टिसे जो-जो जीवात्मा निरावरण बनते हैं वे सभी समान भाव से परब्रह्म हैं । इस प्रकार केवलाद्वैती वेदान्तकी अभेददृष्टि और जैन-परम्पराकी भेददृष्टिके बीच आकाश-पाताल जितना अन्तर होनेपर भी परमात्मस्वरूपके बारे में अद्भुत साम्य है और वह यह कि तत्त्वतः सच्चिदानन्द ब्रह्म एक हो या अनेक, पर उसकी सच्चिदानन्दरूपता दोनोंमें एकसी उपास्य है ।
यद्यपि बौद्ध परम्परा में विदेहमुक्त चित्त या सत्त्वका अर्थात् निर्वाणकालीन स्थितिका जैन या वैदिक परम्परामें मिलता है वैसा कोई स्पष्ट और सबको मान्य हो ऐसा वर्णन नहीं है; उसमें यह स्थिति अव्याकृत ही मानी गई है; फिर भी इतना तो सर्व
१. 'किं पन भन्ते, होति तथागतो परं मरणा ? इदमेव सच्चं मोघं अञ्ञति ?'
“श्रब्याकतो खो एतं पोहपाद, मया - होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघं अञ्ञति । "
'किं पन भन्ते, न होति तथागतो परं मरणा ? इदमेव सच्चं मोघं श्रञ्ञति' ?
" एतं पि खोपोडपाद, मया अब्याकतं - न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघं ञति । "
" किं पन भंते, होति च न च होति तथागतो परं मरणा ? इदमेव सच्चं
मोघं
ति ?'
" ब्याकतो खो एतं पोट्ठपाद, मया - होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेत्र सच्चं मोघं अञ्ञं ति ।”