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________________ ४० ] यथा वा, तत्रैव विदुरोक्ती - भिदुरमानसमाशुचिचक्षुषं स विदुरो निनदैरतिभीषणः । सकलबालपराक्रमवर्णनैः सदसि भूमिपति समबोधयत् ॥ X X X यथा वा, पाण्डचरिते' वृतमौक्तिक भवनमिव ततस्ते बाणजालैरकुर्वन्, गजरथहयपृष्ठे बाहुयुद्धे च दक्षाः । विघृतनिशितखङ्गाश्चर्मणा भासमाना विदधुरथ समाजे मण्डलात् सव्यवमात् ।। X X X यथा वा, ममैव पाण्डवचरिते अर्जुनागमने द्रोणवाक्यम् ज्ञानं यस्य ममात्मजादपि जनाः शस्त्रास्त्र शिक्षाधिकं, X यथा, ममैव पाण्डवचरिते મ पार्थः सोऽर्जुनसंज्ञकोऽत्र सकलैः कौतुहलाद् दृश्यताम् । श्रुत्वा वाचमिति द्विजस्य कवची गोधाङ्गुलित्राणवान्, पार्थस्तूणशरासनादिरुचिरस्तत्राजगाम द्रुतम् ।। X X तुष्टेनाऽथ द्विजेन त्रिदशपतिसुतस्तत्र दत्ताभ्यनुज्ञः, कर्णोऽपि प्राप्तमानस्सदसि कुरुपतेर्द्वन्द्वयुद्धार्थमागात् । जम्भारातिः स्वसूनोरुपरि जलधरैस्संव्यधादातपत्रं, चण्डांशुश्चापि कर्णोपरि निजकिरणानाततानातिशीतात् ॥ इन पांचों पद्यों की रचनाशैली, शब्दयोजना, लाक्षणिकता और श्रीलंकारिक योजना को देखते हुये निःसंदेह कह सकते हैं कि यह काव्य गुणों से परिपूर्ण महाकाव्य ही है । लघुवयस्क की रचना होते हुये भी इसमें भावों की प्रौढता भाषा की प्रांजलता परिलक्षित होती है । खेद है कि यह ग्रन्थ अद्यावधि प्राप्त है। संभव है शोधकर्ताओं को शोध करते हुये यह महाकाव्य प्राप्त हो जाय तो ग्रन्थकार के जीवन और दर्शन पर अधिक प्रकाश डाला जा सके । १ - बृत्त मौक्तिक पृ. १२१, २-- पृष्ठ १५१, ३- पृ. १६०
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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