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________________ वृत्तमौक्तिक की रचना १०३४ ई० में हुई थी। अतः क्षेमेन्द्र का समय ११वीं शती निश्चित है । क्षेमेन्द्र ने इस ग्रंथ में पहले छन्द का लक्षण दिया है और तदुपरांत अपने ग्रंथों से उदाहरण दिये हैं। छंदों के नाम दो बार आये हैं, एक वार लक्षण में और दूसरी बार उदाहरण में । यह ग्रन्थ तीन विन्यासों में विभक्त है । क्षेमेन्द्र के विचार में विशेष रसों या प्रसंगों के लिए विशेष छंद ही उपयुक्त और पर्याप्त प्रभावशाली होते हैं । ग्रंथकार के अनुसार उपजाति पाणिनि का, मन्दाक्रांता कालिदास का, वंशस्थ भारवि का और शिखरिणी भवभूति का प्रिय छंद रहा है। ११. श्रुतबोध-इसके लेखक कालिदास कहे जाते हैं। कीथ ने इस बात का कोई आधार नहीं माना। कुछ लोग वररुचि को भी इसका लेखक मानते हैं । कृष्णमाचारी नौ कालिदासों में से तीसरा कालिदास मानते हैं। गैरोला के अनुसार ये ७ या ८वीं शताब्दी के कोई अन्य कालिदास होंगे । युधिष्ठिर मीमांसक' के अनुसार इस कालिदास का समय १२वीं शती था । संभव है यह मान्यता उचित हो और यह कालिदास राजा भोज के सखा के रूप में लोककथाओं में ख्याति प्राप्त कालिदास हो । लक्षण में ही उदाहरण का गतार्थ हो जाना इस ग्रंथ की सब से बड़ी विशेषता है। इसका भी प्रसार सर्वाधिक रहा है । १२. छन्दोऽनुशासन—इसके प्रणेता कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्र पूर्णतलगच्छीय श्रीदेवचंद्रसूरि के शिष्य हैं। अणहिलपुर पत्तन के नृपति सिद्ध राज जयसिंह की सभा के ये प्रमुखतम विद्वान् थे और महाराजा कुमारपाल के ये धर्मगुरु थे। इनका समय वि० सं० ११४५-१२२६ माना जाता है। ये बहुमुखी प्रतिभा वाले लेखक और वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्न प्राचार्य एवं शास्त्र-प्रणेता थे। हेमचन्द्र ने अपने इस ग्रंथ को पिंगल, जयदेव और जयकीति के अनुकरण पर ही आठ अध्यायों में ग्रथित किया है। वंतालीय और मात्रासमक के कुछ नये भेद जिनका उल्लेख पिंगल, जयदेव, विरहांक, जयकीत्ति आदि पूर्ववर्ती प्राचार्यों ने नहीं किया, हेमचन्द्र ने प्रस्तुत किये हैं। इसमें लगभग सातसौ आठसौ छंदों का निरूपण प्राप्त है । नवीन मात्रिक-छंदों की दृष्टि से इस ग्रंथ का सर्वाधिक महत्त्व है। हेमचन्द्र ने इस ग्रंथ पर स्वोपज्ञ टीका भी बनाई है। इस टीका में हेमचन्द्र ने १-कीथ : ए हिस्ट्री आव् संस्कृत लिटरेचर, पृ० ४१६ २-एम० कृष्णमाचारी : ए हिस्ट्री प्राव् क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ० ६०८ ३-देखें, वैदिक-छन्दोमीमांसा पृ० ६२ ४-डॉ० एच० डी० वेल्हणकर-सम्पादित टीकासहित यह ग्रंथ सिंघी जैनग्रंथमाला में प्रकाशित है।
SR No.023464
Book TitleVruttamauktik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1965
Total Pages678
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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