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________________ 1.78-83] स्वयंभूच्छन्दः। [ तीक्ष्णखङ्गधाराभिन्नदुर्निवारवारणेन्द्रकुम्भपीठप्रस्तरौघदुर्गमायाम् दीर्घबाणभिद्यमानयोधदेहरुण्डखण्डप्रक्षरच्छोणितैकपानीयायाम् / द्विभागजातकायनिर्यद्रक्तसिक्तछत्रपुण्डरीकमुक्तकेशशैवलायाम् ईदृश्यां शत्रुवाहिनीनद्यां मम नाथः कृपाणद्वितीयः समुत्तरति // 80.1 // ] जइ सम्वचआरगणा अवसाणगुरू तमिणं भणिअं कुसुमत्थरणं // 81 // [यदि सर्वे चतुर्मात्रगणाः अवसानगुरवः तदिदं भणितं कुसुमास्तरणम् // 81 // ] कुसुमत्थरणं सुद्धसहावस्स [कुसुमास्तरणं शुद्धस्वभावस्य ] / सुपहुत्तसरोअअहंससमूहसमुधुअपक्खपरिक्खिअएहिं सआ दिणणाहफुरंतकरग्गसहस्सविफंसविबोहिअअंतरएहिं फुडं / भमरेहिं जहिच्छिअरं महुपाणविमोहिअपहिं चलेहिं चिरंचिअओ कमलेहिं कओ रजओहसुसोहिअएहिं मअच्छि विहूसिअओ सरओ // 81.1 // [सुप्रभूतसरउदकहंससमूहसमुद्भुतपक्षपरिक्षिप्तैः सदा दिननाथस्फुरत्कराग्रसहस्रविस्पर्शविबोधितान्तरैः स्फुटम् / भ्रमरैर्यथेष्टं मधुपानविमोहितैश्चलैश्विरमर्चिता कमलैः कृता रजओघसुशोभितैः मृगाक्षि विभूषिता शरत् / / 81.1 // ] सवचआरगणाइगुरू णिहणे दुगुरू जइतं पभणंति भुअंगविलासं // 82 // [सर्वे चतुर्मात्रा आदिगुरवो निधने द्वौ गुरू यदि तं प्रभणन्ति भुजंगविलासम् / / 82 // ] भुअंगविलासो तस्सेअ [भुजङ्गविलासो तस्यैव] / वासहरम्मि वरे कसणाअरुडड्ढि अधूवसुअंधमणोहरए कमणीए पीणघणुण्णअचक्कलथोरथणीअ स परिपेल्लिअवच्छअलो रमणीए। कोमलबाहुलआदढवेढिअओ पडिवट्टसेणेत्तविअंसिअए सअणीए पावइ णिद्दिअअं हिअअच्छिअअं सहि जो च्चिअ पुण्णजुओ स णरो रअणीए // 82.1 // [वासगृहे वरे कृष्णागरुदग्धधूपसुगन्धमनोहरे कमनीये पीनघनोन्नतवर्तुलस्थूलस्तन्या स्वयं परिप्रेरितवक्षस्तलो रमण्या / कोमलबाहुलतादृढवेष्टितः प्रतिपट्टसुनेत्रवितंसिते शयनीये प्राप्नोति निद्रां हृदयेप्सितां सखि य एव पुण्ययुतः स नरो रजन्याम् / / 82.1] मुहज्जू पआरा णिबझंति जत्तो जहिच्छाइ सो दंडओ सीहकीलाहिहाणो // 83 // [ मुखर्जवः पञ्चमात्राः निबध्यन्ते यतो यथेच्छं स दण्डकः सिंहक्रीडाभिधानः // 83 // ] 1 विशिष्टस्पर्श. 2 पटीपटस्वनेत्रविदंकाशिते (?).
SR No.023463
Book TitleSwayambhuchand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH D Velankar
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishtan
Publication Year1962
Total Pages292
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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