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________________ इससे सन्तोष गुण का ही हर एक प्राणी को अवलम्बन करना चाहिये, क्योंकि सन्तोष के आगे इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र, और चक्रवर्ती की समृद्धियाँ भी तुच्छ हैं, सन्तोष में जो सुख का अनुभव होता है वह इन्द्रों को भी प्राप्त नहीं होता, संतोषी पुरुष मान, पूजा, कीर्ति आदि की इच्छा नहीं रखता, और सर्वत्र निस्पृहभाव से धर्मानुष्ठान करता है। जो लोग सन्तोष नहीं रखते, और हमेशा लोभ के पंजे में फसे रहते हैं, वे "निष्पुण्यक' की तरह महादुःखी होकर और पश्चात्ताप करते हुए सब के दास बनते हैं। ____निष्पुण्यक' ने धन की आशा से देवरमण यक्षराज के मन्दिर में बैठकर जब मरना चाहा तब यक्षराज ने प्रत्यक्ष हो कर कहा कि-अरे! तेरे भाग्य में धन नहीं है, व्यर्थ ही यहाँ पर क्यों प्राणमुक्त होता है ?। 'निष्पुण्यक' ने जबाब दिया कि यदि भाग्य में ही धन मिलना होता तो आपके पास मुझे आने की क्या आवश्यकता थी?, अतः मुझे धन दीजिए, नहीं तो आप ही के ऊपर प्राणत्याग कर दूँगा। यक्ष ने खिन्न हो कर अन्त में कहा कि-अरे मूर्ख! यहाँ पर निरन्तर प्रातः समय स्वर्णमय मयूर आकर नृत्य करेगा, और एक, एक स्वर्णमय पीछ (पक्ष) नित्य डालेगा उसको तूं ले लेना। ऐसा कह कर यक्ष तो अदृश्य हो गया। तदनन्तर 'निष्पुण्यक' यक्ष के कथनानुसार नित्य एक, एक पाँख लेने लगा। ऐसे बहुत दिन व्यतीत होने पर लोभ का पूर बढ़ने से दुर्भाग्यवश 'निष्पुण्यक' सोचने लगा कि यहाँ कहाँ तक बैठा रहूँ, कल मयूर आवे तो पकड़ लूँ जिससे मेरा दरिद्र दूर हो जावे। ऐसा मानसिक विचार करके जब प्रातःकाल मयूर नाचने को आया कि-झट उसको पकड़ने के लिए दौड़ा, इतने में वह मयूर काकरूप होकर निष्पुण्यक के मस्तक पर चञ्चप्रहार दे कर उड़ गया, और जो पाँखें इकट्ठी की थीं वे सब कौआ की पाँखें हो गईं, जिससे वह 'निष्पुण्यक' अत्यन्त दुःखी हो पश्चात्ताप का पात्र बना और लोगों की सेवा चाकरी कर निर्वाह चलाने लगा, तथा संसार का कोपभाजन बना। इस कथा का तात्पर्य यह है कि बुद्धिमानों को सन्तोषरूप महागुण को धारण करना चाहिए, और लोभदशा को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि सन्तोष और शान्त गुण के प्रभाव से ही मौनीन्द्र व योगिराज जंगलबास कर मन वचन और काया की चपलता का श्री गुणानुरागकुलक ६३
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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