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________________ स्त्रियों के लोभ से रावण और धवल सेठ, धन के लोभ से मम्मण और सागर सेठ, सातवें खण्ड के लोभ से 'ब्रह्मदत्त' चक्रवर्ती आदि अनेक महानुभाव संसार में नाना कदर्थनायें देख कर नरक कुण्ड के अतिथि बने हैं। अतः लोभ करना बहुत ही खराब है और अनेक दुर्गुणों का स्थान व संपत्तियों का नाशक है। जब तक सन्तोष महागुण का अवलम्बन नहीं किया जावे तब तक लोभ दावानल शान्त नहीं होता। संसार में प्राणीमात्र को खाते, पीते, भोग करते और धन इकट्ठे करते अनन्त समय बीत गया है परन्तु उससे हाल तक किंचिन्मात्र तृप्ति नहीं हुई और न सन्तोष लाये विना तृप्ति हो सकेगी। क्योंकि सन्तोष ऐसा सद्गुण है जिसके आगे तृष्णा का वेग बढ़ ही नहीं सकता, कहा भी है किगोधन गज धन बाजिधन, अरु रत्न की खान। जब आवत संतोष धन, सब धन धूर समान।। भावार्थ-जगत में गौ, हाथी, घोड़ा आदि अनेक प्रकार का धन विद्यमान है और रत्नों की खानियाँ भी विद्यमान हैं, परन्तु वह सब धन चिन्ताजाल से आच्छादित होने से तृप्ति का कारण नहीं है, किन्तु लाभ के अनुसार उत्तरोत्तर तृष्णा का वर्द्धक है। इसलिए जब हृदय में सन्तोष महाधन संगृहीत होता है, तब बाह्य सब धन धूल के समान जान पड़ता है। अत एव लोभदशा को समस्त उपाधियों का कारण समझ कर छोड़ना ही अत्युत्तम और अनेक सद्गुणों का हेतु है। कारण यह है कि तृष्णा का उदर तो दुष्पूर है उसका पूरना बहुत ही मुश्किल है। उत्तराध्ययन के वें अध्ययन में लिखा है किकसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुणं दलेज इक्कस्स। तेणा वि से न संतू–से इ इ दुप्पूरए इमे आया।१६। भावार्थ—'कपिलमुनि' विचार करते हैं कि यदि किसी पुरुष को समस्त मनुष्यलोक [और इन्द्रलोक का भी संपूर्ण राज्य] दिया जाय, तो भी उतने से भी वह सन्तोष को नहीं पाता, इससे तृष्णा दुष्पूर्य है अर्थात् इसकी पूर्ति के लिए संतोष के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं। ६२ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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