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________________ सब दोषों से रहित मोक्षस्थान का अधिकारी ही नहीं बन सकता । क्योंकि भोग में रोग का, धन में राज्य का, मौन में दीनता का, बल में शत्रु का रूप में जरा (वृद्धता) का, शास्त्र में वाद का, गुण में दुर्जन का और काया में काल का भय लगा हुआ है, अर्थात् मनुष्यों को संसार में सर्वत्र भय ही भय है, परन्तु निर्भय तो एक महात्मा का समागम ही है। जो कि सुख और दुःख का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाला है। इसीलिये संसार में सब संयोग प्राप्त हो जाते हैं, लेकिन सत्पुरुषों का समागम मिलना बहुत कठिन है। लिखा भी है किमात मिले सुत भ्रात मिले। पुनि तात मिले मनवंछित पाई । । राज मिले गज वाजि मिले। सब साज मिले युवती सुखदाई ।। लोक मिले परलोक मिले । सब थोक मिले बैकुंठ सिधाई ।। 'सुन्दर' सब सुख आन मिले। पण 'सन्तसमागम' दुर्लभ भाई ।। अर्थात् — इस संसार में माता-पिता, पुत्र, भाई, स्त्री आदि अपनी मनसा के अनुकूल मिल सकते हैं, दिव्य राज, हाथी, घोड़ा, पायदल आदि सब साज मिल सकते हैं, लोक और परलोक सुधरने संबंधी सब सामग्रियाँ मिल सकती हैं, बहुत क्या कहें सब सुख सहज में प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु मोक्षधाम में पहुँचाने वाला और समग्र उपाधियों का मिटाने वाला एक 'सत्समागम' का ही मिलना दुर्लभ हैं। शास्त्रोक्तगुण संपन्न महात्मा इस संसार में विरले हैं, उनका समागम होना सहज नहीं है, जिन लोगों ने अखंडित दान, दया, संजम आदि सत्यव्रत पालन किये हैं और परापवाद से अपनी आत्मा को बचाकर सहनशीलता आदि सद्गुणों का अभ्यास किया है या करने का उत्साह जिनके हृदय में रहता है उन्हीं को सन्तसमागम मिलता है। श्री गुणानुरागकुलक ६६
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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