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________________ दिलवा दो।' हुक्म पाते ही मुनीम ने ब्राह्मण से पूछा कि तेरे को क्या चाहिये ? | ब्राह्मण ने जवाब दिया कि मैं तो सेठजी से केवल मिलना ही चाहता हूँ और कुछ नहीं । मुनीम ने सेठ के पास जाकर उसी प्रकार कहा, सेठ ने सोचा कि वह मेरे पास आने पर कुछ अधिक माँगेगा, और मुझे मिलने का अवकाश भी नहीं है। मुनीम को हुक्म दिया कि 'उसको दो चार रुपया देकर रवाना कर दो। ' सेठ की आज्ञा पाकर मुनीम ने ब्राह्मण से वैसा ही कहा, किन्तु उसने तो वही पूर्वोक्त वचन कहा। तब मुनीम बोला कि - ब्राह्मण ! तुम भूखे मर जाओगे तो भी सेठ तो मिलने वाला नहीं है । ब्राह्मण सेठजी से मिलने के लिये दो तीन दिन तक भूखा बैठा रहा, सेठजी को खबर हुई कि ब्राह्मण केवल मुझ से मिलने के निमित्त ही भूखा मर रहा है। अन्त में सेठ ने बाहर आकर कहा कि - हे ब्राह्मण ! बोलो क्या काम है ? मुझे तो भोजन करने का भी अवकाश नहीं है, तथापि तुम्हारे आग्रह से आना पड़ा है। सेठ के वचनों को सुन कर ब्राह्मण समझ तो गया परन्तु विशेष स्पष्ट करने के लिये कहा कि मेरे ऊपर एक महात्मा प्रसन्न हुए हैं और वे मेरी इच्छा के अनुकूल सुख देने को तैयार हैं किन्तु प्रथम सुखानुभव कर सुख का मैंने इरादा किया है। इसलिये बतलाइये कि - 'आप सुखी हैं या दुःखी ? | अगर आप सुखी हों तो मैं महात्मा से आप के समान सुख माँगलूं।' सेठ ने कहा कि – अरे महाराज ! मैं महा दुःखी हूँ, मुझे खाने-पीने या सुखपूर्वक क्षणभर बैठने तक का समय नहीं है, यदि मेरे समान सुख माँगोगे तो आप महा दुःखी हो ओगे, व भूल कर भी मेरे समान सुखी होने की याचना मत करना। बस, इस प्रकार सुनते ही तो ब्राह्मण अन्यत्र सुखानुभव करने की आशा से निराश हो विचारने लगा कि वस्तुगत्या संसार में महात्माओं के सिवाय दूसरा कोई मनुष्य सुखी नहीं दीख पड़ता। क्योंकि -संसार जाल महाभयङ्कर है, इसमें मग्न होकर सुखी होने की अभिलाषा रखना सर्वथा भूल है। मनुष्य जब तक धन, स्त्री, पुत्र, क्षेत्र आदि की चिन्ता में निमग्न हो इधर-उधर भटकता रहता है, तब तक अनुपम आनन्ददायक और ६८ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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