SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुष सुशिक्षणीय होने से अल्पसमय में धार्मिक तत्त्वों का पारगामी हो जाता है और इसी से वह धर्म के योग्य भी होता है, किन्तु मत्सरी इस गुण से रहित होने से धर्म के योग्य नहीं होता। पाठकगण ! पूर्वोक्त सद्गुणों वाला मनुष्य अपनी योग्यता से धार्मिक रहस्यों को प्राप्त कर सकता है, परन्तु ईर्ष्यालु मनुष्यों में पूर्वोक्त सद्गुणों का विलकुल अभाव होता है, इससे वे धार्मिक रहस्यों की प्राप्ति से शून्य रहते हैं, अतएव बुद्धिमानों को अपनी योग्यता बढ़ाने के लिये मात्सर्य दुर्गुण को सर्वथा छोड़ ही देना चाहिये। इस भव में किये हुए अभ्यास के अनुसार गुण या दोषों की परभव में भी पारित होती है ARE AL2 HR alजं अब्भसेइ जीवो, च दोसं च इत्थ जम्मम्मि । || तं परलोए पावइ, भासेणं पुणो तेणं।।६|| ए श (जीवो) आत्मा (इत्थ) इस (जम्मम्मि) जन्म के विषे (ज) जिस प्रण) गुण (च) और (दोसं च) दोष का (अब्भसेइ) अभ्यास रखता है-सीखता है (तेणं) उस (अब्भासेणं) अभ्यास से (तं) उस गुण और दोष को (परलोए) परलोक में (पुणो) फिर (पावइ) पाता है। भावार्थ- यह आत्मा इस जन्म में जिन गुण और दोषों का अभ्यास रखता है, उन्हीं को भवान्तर में भी पाता है। अर्थात् इस जन्म में किये हुए अभ्यास के अनुसार अन्यजन्म में भी गुण और दोष का भाजन बनता है। विवेचन स्मृति पथ में दृढ़ीभूत करने के लिये एक वस्तु को वार वार याद करते रहना, अर्थात् इष्ट वस्तु की पूर्णता प्राप्त करने के लिये एक या अनेक क्रिया अवलंबन करने का नाम 'अभ्यास' है। * यमभ्यसेज्जीवो, गुणं च दोषं चाऽत्र जन्मनि। तं परलोके प्राप्नोत्य-भ्यासेन पुनस्तेन्।।६।। ६0 श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy