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________________ कर दिया, उसका असर होते ही स्त्री ने कहा कि आज इतना धान्य कहाँ से लाये? मच्छीमार ने कहा कि एक धर्मात्मा ने मुझ को सोनामोहर बिना माँगे ही दी थी उसको बटाकर एक रुपये का तो धान्य लाया हूँ, और चवदह रुपये मेरे पास हैं। उनको देखकर लड़के व स्त्री ने कहा कि अब दो महिना की खरची तो अपने पास मौजूदा है, तो रात्रि में तालाब पर जाना, और निरपराधी जन्तुओं का नाश करना यह नीचकर्म करना ठीक नहीं है। इससे तो मजूरी करना सर्वोत्तम है। सबने ऐसा विचार किया और मच्छीमारों का मुहल्ला छोड़कर साहूकारों के पड़ोस में जा बसा, इस तरह यावज्जीवन नीचकर्म से विरक्त हो आनन्दपूर्वक मजूरी से अपना निर्वाह करने लगा। इसी तरह दूसरा मनुष्य राजा की सोनामोहर लेकर एक ध्यानस्थ योगी के पास आया और उसे धर्मात्मा तपस्वी जानकर मोहर उसके सामने रख दी और किसी वृक्ष के नीचे बैठकर उसकी व्यवस्था देखने लगा। योगीजी ने ध्यान समाप्त कर देखा तो सामने मोहर पड़ी है उसको देखते ही सोचा कि-'मैं ने किसी से याचना नही की, याचना करने से क्या कोई सोनामोहर भेंट करता है ?, शिव! शिव !! चार आना भी मिलना मुश्किल है। यह तो परमेश्वर ने ही भेजी है. क्योंकि मैं ने ध्यान के द्वारा जगत का तो स्वरूप देख लिया। परन्तु अनुभव द्वारा स्त्रीभोग का साक्षात्कार नहीं किया, अतएव ईश्वर ने कृपाकर यह भेंट दी है' इत्यादि अनर्थोत्पादक विचार योगी के हृदय में उमड़ आए। बस योगी ने अन्यायोपार्जित सोनामोहर के प्रभाव से कुकर्मवश चालीस वर्ष का योगाभ्यास गंगा के प्रवाह में बहा दिया, क्योंकि स्त्री समागम से योग नहीं रह सकता। कहा भी है कि*आरंभे नत्थि दया, महिलासंगेण नासई बंभं । संकाए सम्मत्तं, अत्थग्गाहेण पव्वजं' ||१|| १, भावार्थ—आरंभ करने में दया नहीं है, स्त्रीसमागम से ब्रह्मचर्ययोग, संशय रखने से सम्यक्त्व और परिग्रह (द्रव्य) ग्रहण करने से संयमयोग का नाश होता है! * आरम्भे नास्ति दाया, महिलासंगेन नाशयति ब्रह्म । शङ्कया सम्यक्त्वं, अर्थग्राहेण प्रव्रज्याम्' ।।११।। १३४ श्री गुणानुरागकुलक
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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