SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहा कि इस बात में प्रमाण क्या है ? कि राजद्रव्य अन्यायोपार्जित है ?। ज्योतिषियों ने कहा-राजन् ! इसकी परीक्षा करना यही प्रमाण प्रत्यक्ष है। राजा ने प्रधान को एक सेठ की, और एक अपनी सोनामोहर, निसान करके दी। प्रधान ने अपने नौकरों को बुलाकर कहा कि ये दो सोनामोहर दी जाती हैं, इसमें से एक किसी पापी को और एक धर्मात्मा तपस्वी को देना। दोनों नौकर एक-एक सोनामोहर को लेकर गाँव के बाहर भिन्न-भिन्न रास्ते होकर निकले। जिसके पास सेठ की सोनामोहर थी, वह रास्ते में जा रहा था कि इतने में तो सामने कोई मच्छीमार मिला, उसे देख कर विचारा कि इससे बढ़कर पापी कौन है ?| क्योंकि यह प्रातःकाल उठकर स्वच्छ जलाशय में रहने वाली मच्छियों को पकड़कर मारता है। अतएव यह सोनामोहर इसे ही दे दूँ। ऐसा विचार कर सोनामोहर उस मच्छीमार को दे दी। __मच्छीमार को सोनामोहर प्रथम ही प्राप्त हुई है; इससे उसने विचारा कि इसको कहाँ रक्खू, क्योंकि वस्त्र में तो मेरे पास एक लंगोट ही है, इसलिए इसमें बाँधना तो ठीक नहीं। बहुत विचार करने पर अन्त में उसको अपने मुँह में रख ली। आगे चलते-चलते ज्योंही न्यायोपार्जित सोनामोहर का अंश थूक के साथ पेट में गया कि मच्छीमार की विचारश्रेणी बदल गई। मच्छीमार मन ही मन में विचार करने लगा कि अहो! यह किसी धर्मात्मा ने मुझको धर्म जानकर दी है, इसके कम से कम पन्द्रह रुपये आवेंगे किन्तु इन मछलियों के तो दो चार आने मुश्किल से मिलेंगे, हाल मछलियाँ मरी नहीं हैं, तो इतना पुण्य दाता को ही हो, ऐसा समझकर मच्छीमार जलाशय में मछलियों को छोड़ आया, और बाजार में आकर सोनामोहर के पन्द्रह रुपया लिये, उसमें से एक रुपया का ज्वार, बाजरी, वगैरह धान्य लेकर घर आया। इसे देखकर लड़के और स्त्री विचार में पड़े, देखो निरन्तर यह बारह बजे घर आता था और थोड़ा सा धान्य लाता था, आज तो विकसित वदन हो बहुत धान्य लेकर जल्दी आया है। इस प्रकार मन में ही विचार कर उस धान्य को सबने कच्चा ही फाकना शुरू श्री गुणानुरागकुलक. १३३
SR No.023443
Book TitleGunanuragkulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashak Trust
Publication Year1997
Total Pages200
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy