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________________ इतीदं भावयेन्नित्यमवाचांगोचरं पदम्।... स्वत एव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुनः ।।६।। इस प्रकार भेद अथवा अभेद (भिन्न आत्मा और अभिन्न आत्मा) रूप से आत्मस्वरूप की निरन्तर भावना करनी चाहिए। इससे यह जीव उस अनिर्वचनीय परमात्म-पद को स्वत: प्राप्त कर लेगा जिससे उसका लौटकर आना नहीं होगा। उसे पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाएगी। अयत्नसाध्यं निर्वाणं चित्तत्वं भूतजं यदि। अन्यथा योगतस्तस्मान्न दु:खं योगिनां क्वचित् ।।१०।। यह चैतन्य स्वरूप आत्मा अगर भूतज है यानी अगर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों से उत्पन्न है अथवा सहज शुद्धात्म स्वरूप से उत्पन्न है तो फिर मृत्यु के साथ निर्वाण स्वत: हो जाएगा। उसके लिए प्रयत्न करने की ज़रूरत ही नहीं है। और अगर निर्वाण की प्राप्ति योग से अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध से होती है तो इसमें भी योगियों के लिए दुःख का सवाल नहीं है। स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोऽस्ति यथात्मन:। तथा जागरदृष्टेऽपि विपर्यासाविशेषतः।।१०१।। प्रत्यक्ष दिखनेवाले शरीर का स्वप्न में हुआ विनाश उसका सचमुच का विनाश कहाँ है? इसी प्रकार जागृत अवस्था में हुए शरीर के विनाश से आत्मा का विनाश कहाँ होता है? दोनों अवस्थाओं में एक ही जैसे भ्रम हैं। अदु:खभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ। तस्माद्यथाबलं दु:खैरात्मानं भावयेन्मुनिः।।१०२॥ बिना कष्ट उठाए प्राप्त हुआ भेदविज्ञान कई बार शारीरिक कष्ट पड़ने पर क्षीण होने लगता है। इसलिए अन्तरात्मा व्यक्ति को चाहिए कि वह यथाशक्ति कष्ट-सहन का अभ्यास करता हुआ आत्मा को शरीर से भिन्न समझने का भावन करे। यानी कष्टसहन का अभ्यास करते हुए भेदविज्ञान को अनुभूति में उतारने की दिशा में आगे बढ़े। 29
SR No.023440
Book TitleSamadhi Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2008
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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