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________________ अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। त्यजेत्तान्यपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ॥८४॥ व्यक्ति अव्रतों को छोड़कर व्रतों में निष्ठा रखे। उनका दृढ़ता से पालन करे। फिर आत्मा के परम वीतराग पद को प्राप्त करके उन व्रतों को भी छोड़ दे। यदन्तर्जल्पसम्पृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मनः । मूलं दु:खस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् ।।८।। अन्तरंग में वाणी व्यापार से युक्त विकल्प अथवा कल्पनाओं का जाल आत्मा के दुःख का मूल कारण है। उसके नष्ट होने पर हितकारी और प्रिय परम पद की प्राप्ति होती है। अव्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायणः । परात्मज्ञानसम्पन्न: स्वयमेव परो भवेत् ।।८६ ।। अव्रती को व्रत धारण करके व्रती बनना चाहिए। व्रती को ज्ञान-भावना में लीन होना चाहिए। ज्ञान-भावना में लीन व्यक्ति को केवल-ज्ञान से सम्पन्न होना चाहिए और केवल-ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति को सिद्ध पद प्राप्त करना चाहिए। लिङ्ग देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताग्रहा: ॥८७।। बाहरी चिह्न (जैसे जटाजूट धारण करना) देह से जुड़े हुए हैं। देह ही आत्मा का संसार यानी बन्धन है। इसलिए जिन्हें बाहरी चिह्नों का आग्रह है वे व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होते। जातिदेहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भवः। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहा: ।।८८ ।। जातियाँ (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि) भी देह से जुड़ी हुई हैं। देह ही आत्मा का संसार यानी बन्धन है। इसलिए जिन्हें जाति का आग्रह है वे व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होते। 26
SR No.023440
Book TitleSamadhi Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2008
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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