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________________ जीर्णे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न जीर्णं मन्यते तथा। जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुधः॥६४ ।। जिस प्रकार अपने पहने हुए वस्त्र के जीर्ण हो जाने पर ज्ञानी व्यक्ति अपने शरीर को जीर्ण हुआ नहीं मानता उसी प्रकार अपने शरीर के जीर्ण हो जाने पर वह अपनी आत्मा को भी जीर्ण हुआ नहीं मानता। नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न नष्टं मन्यते तथा। नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ॥६५ ।। जिस प्रकार वस्त्र के नष्ट हो जाने पर ज्ञानी व्यक्ति अपने शरीर को नष्टहुआ नहीं मानता उसी प्रकार वह अपने शरीर के नष्ट हो जाने पर अपनी आत्मा को नष्ट हुआ नहीं मानता। रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा। रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः ॥६६॥ जिस प्रकार लाल रंग के वस्त्र पहनने पर ज्ञानी व्यक्ति अपने शरीर को लाल नहीं मानता उसी प्रकार अपने शरीर के लाल होने पर वह अपनी आत्मा को भी लाल रंग का नहीं मानता। यस्य सस्पन्दमाभाति नि:स्पन्देन समं जगत्। अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतर:॥६७॥ जब व्यक्ति को क्रियाओं और चेष्टाओं से भरा हुआ यह संसार निश्चेष्ट तथा चेतना, क्रिया और भोग से रहित प्रतीत होने लगता है तब उसे शान्ति सुख का अनुभव होता है। उससे भिन्न व्यक्ति को शान्ति सुख का अनुभव नहीं होता। शरीरकञ्चुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रहः। नात्मानं बुध्यते तस्माद्धमत्यतिचिरं भवे ॥६८।। बहिरात्मा व्यक्ति की ज्ञानमूर्ति आत्मा कार्मण शरीर रूपी केंचली से ढंकी हुई है। ऐसा व्यक्ति आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता । फलस्वरूप उसे लम्बे समय तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। वह बार-बार जन्म और मरण से गुज़रता है। 22
SR No.023440
Book TitleSamadhi Tantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year2008
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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