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________________ परोपकृतिमुत्सृज्य, स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो, दृश्यमानस्य लोकवत्।।३२।। आत्मा से इतर यह जो दिखाई देनेवाली दुनिया है अज्ञानी प्राणी इसी पर (इतर, पराए) के उपकार में लगा रहता है। वस्तुतः इसे छोड़कर आत्मा का उपकार करने में तत्पर होना चाहिए। गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्तेः स्वपरान्तरम्। जानाति यः स जानाति, मोक्षसौख्यं निरन्तरम्।।३३।। गुरु के उपदेश, अभ्यास अथवा आत्मज्ञान से जो स्व और पर के अन्तर को समझता है दरअसल वही मोक्ष के सुख को समझता है। स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ।।३४।। आत्मा के भीतर ही आत्मा को जानने की श्रेष्ठ इच्छा पैदा होती है। आत्मा ही अपनी प्रिय आत्मा को जानने की सच्ची पात्र है और आत्मा ही स्वयं अपने हित को प्रयोग में लाती है। इसलिए आत्मा ही आत्मा की गुरु है। नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत्॥३५।। अज्ञानी ज्ञानी में और ज्ञानी अज्ञानी में रूपान्तरित नहीं होता। गति के मामले में जैसे धर्म द्रव्य निमित्त है वैसे ही ज्ञान के मामले में अन्य व्यक्ति (गुरु आदि) भी निमित्त मात्र हैं।
SR No.023439
Book TitleIshtopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykumar Jalaj, Manish Modi
PublisherHindi Granth Karyalay
Publication Year
Total Pages26
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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