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________________ - तत्त्वोपनिषद् - सुलभैव सर्वज्ञावगतिः । तदिदं तत्त्वान्वेषणम्, सत्यसंशोधनम्, प्रतिभाफलम्, मानवत्वादिसार्थक्यं च । , चेत्तज्ज्ञानं तदा कृतं शेषैरशेषैरपि न येषु कल्याणकार्यक्षमता, न चापि तादृशविशालता, केवलमसच्छ्रद्धा, मत्सरादि, विवादश्च तैः किं नः प्रयोजनम् ? ते त्वनर्थकरण एव विपश्चित इति कृतमेभिः । अथातः परं परमलक्ष्यं स एव सर्वज्ञ इति ।। २३ ।। ननु स्वदर्शनविनिश्चय एव क्रियताम्, किमपरैरित्यत्राह यथा ममाप्तस्य विनिश्चित्तं वच स्तथा परेषामपि तत्र का कथा ? ४९ उन महानुभावों में से सर्वज्ञ को ढूँढ निकालना है... बस यही है तत्त्वान्वेषण.... यही है सत्य की खोज़.... यही है बुद्धिमत्ता का फल ..... यही है इस जीवन की सार्थकता.... और उस सर्वज्ञ को हम पहचान ले और उसे पा ले, तो फिर दुसरों का हमे क्या काम है। जहाँ कल्याण करने का सामर्थ्य नहीं विश्व के जीवों का पूरा ज्ञान भी नहीं - जहाँ दृष्टि की संकुचितता है- विशालता नहीं - जहाँ विवादकलह या अंधश्रद्धा का ही ज़ोर हो, जहाँ ईर्ष्या आदि दोषों है, जहाँ अनर्थ करने में ही पांडित्य हो, उनका हमे क्या प्रयोजन ? आज से वह सर्वज्ञ ही हमारा लक्ष्य हो, उसकी प्राप्ति ही हमारा जीवन का ध्येय हो । | २३ || अरे भाइ, सबको जानने की क्या जरूर है, अपने अपने दर्शन का अभ्यास कर लो और उसका निश्चित ज्ञान प्राप्त कर लो, इतना ही काफी है। इसका उत्तर देते है जैसे मेरे आप्त का वचन मुझे विनिश्चित है, उसी तरह दुसरों को भी है, वहाँ क्याँ कहना ? आग्रहरहित चित्त से उनके ( वचन की) परीक्षा करनी चाहिये, परीक्षा करनी उचित है, इस अर्थ की - —
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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