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________________ - तत्त्वोपनिषद् - ३९ - पुरातनपुरुषेष्वादरवान् त्वदभिप्रायेण खलः- दुर्जनप्रायः। अहो ! ते पण्डितमानिता। मुञ्चैनं गर्वम्। स्मृतिं लभस्व - गुरुपरम्पराप्राप्तशिक्षं तदुपकारभारावनतं स्वं स्मर। ततश्च त्वमप्यस्मद्वत् तद्वत्सलो भव, आरभ-तदादरादेः प्रारम्भं कुरु। इति न शोभसे - यादृशं तु तवाधुना चेष्टितं तथा तु नैव शोभां प्राप्नोषि, न खलु गुर्वाज्ञाविचारः शिष्यविभूषणाय। दृढश्रुतैः प्रबलज्ञानैर्गुरुभिः सह तादृशैरुच्छ्वसितुमपि न लभ्यते, आस्तां तद्वचः परीक्षितुम्। यद्वा दृढश्रुतैः - अत्यन्तं शास्त्रशुद्धयादृतैः – युक्तिभिस्तत्परीक्षणपरायणैरुच्छ्वसितुं धर्मक्षेत्रे है। अहो ! आपकी पंडिताई ! यहाँ मनुष्य = एक आम आदमी मात्र, यह तिरस्कारसूचक संबोधन है अरे.... अपनी कल्पनासृष्टि से बाहर नीकलो और मिथ्याभिमान छोड़ के अपने आपको याद करो, तुम कोइ आकाश से नही टपके, इसी गुरुपरम्परा से तुमने शिक्षा प्राप्त की है। बचपन से उनकी ही पूजा कि है, तुम्हारे बाप-दादाओं ने भी इन्हे ही परमगुरु माना है। तुम जो कुछ भी हो, वह उनके ही प्रभाव से हो, यह सब याद करो, उनके उपकार को याद करो और तुम भी हमारी तरह उन पर वात्सल्य रखना - आदरभाव रखना प्रारंभ करो। बाकी तुम जिस तरह का बर्ताव कर रहे हो, इस तरह तुम जरा भी शोभायमान नहीं हो रहे हो। ये सब मनमानी और तर्कवितर्क तो तुम्हारी नामोशी है। गुर्वाज्ञा के विषय में विचार करना, यह शिष्य के हित के लिए नहीं होता। ____ एक बात ध्यान में रखना, जो दृढ श्रुत है - जिनका ज्ञान शक्तिशाली है उनके सामने वाद की तो क्या बात, उनके साथ साँस लेना भी तुम जैसो के लिये नामुमकीन है। अथवा तो जो दृढता से श्रुत का ही आग्रह रखते है, शास्त्र
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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