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- तत्त्वोपनिषद् तथा च पारमर्षम् -
जा पुण एगपक्खनिसेवणा सेसाण अवन्ना व, सा तत्तदंसणारओ न जुज्जइ - इति (महानिशीथे)।
ततश्च तेष्वरागः - माध्यस्थ्यमेव न्याय्यम्। अथ च तदपि न, पुरातने स्वकीये वा रागः, इतरेऽवज्ञा चास्ति, एवं च चिन्तनीयैव वादिषु साधुशीलतेति वक्रोक्तिः।।१२।।
अथ मुच्यतां परीक्षाऽऽग्रहः, अविषयत्वात्, इति प्रतितिष्ठतेयथैव दृष्टं तपसा तथा कृतं,
न युक्तिवादोऽयमृषेरिदं वचः। सुबुद्धमेवेति विशेषतो नु किं,
प्रशंसति क्षेपकथा किलेतरा ।।१३।। आर्षमिदं तपोदृष्टानुसारि शास्त्रम्, नाऽत्र युक्तिवादावतारः ततश्चामें कहा भी है - 'जब तक तत्त्वदर्शन न हो, तब तक एक ही पक्ष का आदर और बाकी सबकी अवज्ञा, यह उचित नहीं।' फिर भी वादीओं की समानदृष्टि नही है। उन्हें विशेष रूप से कहीं राग है और कहीं द्वेष। अब आप ही विचार करो - वादीओं में कहा तक साधुशीलता है ? उनका यह बर्ताव कितना उचित है ? इस तरह वक्रोक्ति= व्यंगवचन के द्वारा वादिओं के पक्षपात के प्रति संकेत किया है।।१२।।
अब पुरातन - प्रेमी कहते है कि आप परीक्षा का आग्रह छोड दीजिए, यतः पुरातनों के वचन परीक्षा के विषय नही होते है - ___ 'जैसा ही तप से देखा वैसा किया, यह युक्तिवाद नही, यह ऋषि का वचन है, अच्छी तरह ज्ञात ही है' - इस तरह विशेष से प्रशंसा क्यों करता है ? इस के अतिरिक्त निंदा की बाते है।।१३।। ___ यह तो जैसा ऋषिओं ने अपने तपजनित दिव्य ज्ञान में देखा वैसा ही निरूपण किया। अरे भाइ, यह तो महर्षि का वचन है, युक्तिवाद