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________________ -तत्त्वोपनिषद् - तवाऽभिमतविषये त्वत्यन्तमशक्या। जनोऽपि कुतर्कधृष्टः, ततश्च तत्त्वसंवेदनाऽसम्भवः। सोऽयं भावरिपुरित्याचार्याः, तदाहुः - बोधरोगः शमापायः श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत्। कुतर्कश्चेतसो व्यक्तं भावशत्रुरनेकधा - इति (योगदृष्टिसमुच्चये)। ततश्च त्याज्य एव तदभिनिवेशः, अस्थानत्वात्, आहुश्च - कुतर्केऽभिनिवेशस्तन्न युक्तोऽयं कदाचन। युक्तः पुनः श्रुते शीले समाधौ च महात्मनाम् - इति योगदृष्टिसमुच्चये। तदेवं परीक्षाविरहाफलक्रिया असच्छ्रद्धाभिभूता अन्यपरीक्षकाक्षमा उसकी परीक्षा तो विशेष रूप से अशक्य है। लोग तो तर्क के मार्ग में उद्धत है। उनके कुतर्कों से की हुइ परीक्षा कैसे सफल हो सकती है ? पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने तो योगदृष्टिसमुच्चय नाम के ग्रन्थ में कहा है कि कुतर्क तो एक प्रकार का भावशत्रु है। कुतर्क प्रगट रूप से ही ज्ञान का रोग है, प्रशम में विघ्नभूत है, श्रद्धा का भङ्गकारी है, एवं अभिमान का उत्पादक है। इस तरह अनेक प्रकार के कुतर्क चित्तसंबंधी भावशत्रु है, यह बात स्पष्ट ही है। अतः पुरातन ही उपादेय है, यह आग्रह त्याग करने योग्य ही है, यतः यह आग्रह अनुचित स्थान में है। आग्रह का समुचित स्थान प्रदर्शित करते हुए आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी कहते है - कुतर्क के विषय में आग्रह रखना यह कभी उचित नहीं है, किन्तु श्रुत, शील एवं समाधि के विषय में आग्रह रखना यही महापुरुषों के लिये उचित है। ___(इस तरह पुरातनप्रेमी जन कुतर्कविरोधी वचन को परीक्षा के विरुद्ध में खड़ा कर के जनता को भ्रमित करते है।) इस लिये परीक्षा का आग्रह छोड कर एक ही सिद्धान्त रखो - जिसे जो पसंद हो वही उसकी मुक्ति का कारण। इस लिये जिसे जो जी चाहे वो करे। अब परीक्षा के चक्कर में पड़ने की कोई ज़रूर नहीं। इस प्रकार मोहाधीन जीवोंने दुनिया को मोहित किया है। जिन्होंने अपनी जीवनक्रिया बिना परीक्षा गवाँ दि, पुरातनों पर की अंधश्रद्धा से
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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