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________________ ॥ ४४ ॥ बहूपदेशे तु किंचिद् जावोत्पत्त्या दाचिएयादिना वा जिनगुरुनामनाऽनंतकायाऽनदयादिलचणस्थूलाहिंसादिनियमनमस्कारगुणन सामायिकाबश्यकादीनां स्वल्पनावचित्तैकाग्र्यात्नाव्यसम्यग्विध्यनादरादिनाऽल्पफलत्वेन नीरसानां कियतां प्रतिपत्तिरनुष्टितिश्च स्यात् ॥१५॥ न तु दृढनावादिनिर्महाफलत्वेन सरसानां शुद्धदर्शन देश वितिस चित्तपरिहारब्रह्मव्रत सर्व विरत्यादीनां ॥ २० ॥ ते च क्रियारुच्चा पुड्गल परावर्त्तेन, मुहूर्त्तमपि सम्यक्त्वपरिणत्याऽर्धपुद्गलपरावर्त्तेन, क्रियाऽभ्यासादिना जवांतरे, कदाचित् सम्यग् - ज्ञान क्रियालाना दिना स्वल्पैरपि वा जवैर्मुक्तौ गामिन एव, तत्कालमनुजव्यंतरा दिनवांव प्राप्नुवंति, श्यामल वणिग्वत्, तथाहि ॥२१॥ वळी तेने जो घणो उपदेश देवामां आवे तो पनी केइक नाव उत्पन्न दवाथी अथवा दाक्षिणता आदिकवमे करीने जिनने तथा गुरुने नमस्कार करवामां तथा अनंतकाय अनेक आदिक रूप स्थूलाहिंसा आदिकना नियममां, नमस्कार गणवामां तया सामायिक ने आवश्यक आदिकमां थोको जाव: चित्तना एकाग्रप पानी अाव तथा सम्यग्विधिना अनादर आदिकपणायें करीने अप फळरूपे केटलीक नीरस क्रियाओनो स्वी कार तथा तेनुं अनुष्टान थाय बे; ॥ १७ ॥ परंतु दृढ नाव आदिकवक करीने महान फळस्पे यती रसवाळी एवी शुद्ध समकीत, देश विरति, सजितनो त्याग, ब्रह्मचर्य व्रत, तथा सर्व विरति आदिक रूप क्रियाओनो स्वीकार तथा अनुष्ठान करी शकता नयी ॥ २० ॥ वळी ते क्रियानी रुचिव के करीने पुद्गलपरावर्त्ते, तेमज मुहूर्तमात्र समीनी प्राप्ति पुद्गल तरावर्त्ते, तथा क्रियाना अभ्यास आदिकवके करीने जवांतरमां, तेमज कदाच सम्यग् ज्ञान क्रिया आदिकवमे करीने योगा जवोमां पण मोइगामीज होय छे; तथा तत्काळज मनुष्य तथा व्यंतर यादिकना जवोने श्यामल वलिकनी पेठे प्राप्त थाय छे; ते श्यामलवणिकनुं उदाहरण कहे बे ॥ २१ ॥
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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