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________________ ॥४५॥ जन्नहिसुत्तित्ति, जलधिशुक्तिकासु सजीवासु, जलदे गर्जति वर्षति च स्वभावादूर्ध्व मुखं विकाश्य स्थितासु स्वा तिनक्षत्रे यावंतो यादृशा प्रणवः स्थूला वा जलदजलबिंदवः पतंति, तादृशानि तदुदरेषु मौक्तिकानि जवंति ॥ ए२ एवं केषुचिदुत्तमेषु जीवेषु गुरवो यादृशानि यानि वचनान्युपदिशंति, तानि तथैव परिणमंति, तदनुष्ठानफलानि च नवंति ॥ ५३ ॥ 'नवसमविवेगसंवरेति' पदत्रयश्रोत्रनुष्टातृ चिल्लातीपुत्रवत्, 'मिठ्ठे जुंजेअव्वं, सुहं सुएव्वं, लोग खियो अप्पा कायव्वो, इति पदत्रयं पित्रोक्तं श्रुत्वा त्रिलोचनमंत्रिपार्श्वात्तदर्थमवगम्य च तथैवानुष्ठातृसोमवसुब्राह्मणवा, एते चासन्न सिद्धिकाः, तृतीया दिसप्ताष्टांतर्भवैर्मुक्तिगामिनस्तद्भवमुक्तिगामिन एव वा संजवंति ॥ए४ ॥ जब हिमुत्ति एटले समुद्रनी बीपो, के जेओ जीववाळी होय छे, तया यो स्वनावथीज वरसाद गाजते तथा वरसते व्रते उंचां मुख फामीने रहेली होय बे; तेमां स्वाति नक्षत्रमां जेटली ने जेबां नानां अथवा मोटांवरसादना जळ बिंदु पये छे, तेवां तेोना पेटमां मोतीओ याय डे ॥ ५२ ॥ एवं ते केटलाक उत्तम जीवो प्रतें गुरुग्रो जेवां जे वचनो उपदेशे छे, ते तेवांज परिणामे ढे, अने ते प्रमाणे अनु ष्टानना फळोवाळ याय डे ॥ ५३ ॥ ( कोनी पेठे ? तोके ) उपशम, विवेक ने संवर ए त्रण पढ़ोने सांजळनार तथा ते प्रमाणे अनुष्टान करनार चिल्लाती पुत्रनी पेठे, अथवा 'मीतुं करीने खावं, मुखे मुखं तथा लोकप्रिय आत्मा करवो' एवी रीतना पिताए केहलां त्रणे वचनो सांजळीने, तथा त्रिलोचन मंत्री पासे - थी तेनो अर्थ जाणीने तेज प्रमाणे अनुष्ठान करनार सोमवसु ब्राह्मणनी पेठे; एवी रीतना मनुष्यो सिद्धिवाला, अथवा त्रीजायी मांगी सात आठ नवसुधिमा मोटो जनारा अथवा तेज जवे मोदो जनारा संजवे नजदीक ||२४|| श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.023410
Book TitleUpdesh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalan Niketan
PublisherLalan Niketan
Publication Year1925
Total Pages406
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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