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मूलगाथा. विषे धारण करे , ते गुणसुंदरीनी पेठे श्रा लोकमां श्रने परलोकमां वांबित अर्थनी प्राप्तिथी हर्षवंत थाय ने.
इति गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा.
मोक्षसाधननां बीजां घणां साधनो बे, बतां पण शील उत्कृष्ट साधन डे ते कहे .
देवः गुरुः च धर्मः व्रतं तपः गुप्तिः अवनिनाथोऽपि देवो गुरू ये धम्मो, वैयं तेवं गुत्ति-मवणिनादोविं॥
पुरुषः नारी अपि सदा शीलप्रवृत्तानि अर्धति पुरिसो नारीवि सया, सीलपवित्ताइं अग्छति ॥५॥
शब्दार्थ-(देवो के०) देव, (गुरू के) गुरु, ( धम्मो के ) धर्म, (वयं के०) व्रत, (तवं के०) तप, (गुत्तिं के०) गुप्ति,(अवणिनादो के०) पृथ्विनो नाथ-राजा, (अपि के०) नीखारी, (पुरिसो के०)पुरुष, (च के) श्रने (नारीवि के०) स्त्री पण. ए सर्वे (सया के) निरंतर (सी. लपवित्ता के०) शीलमा प्रवर्त्या सता (अग्धंति के०) पूजाय .॥५॥ - विशेषार्थः-शासन प्रवर्त्तावनार देव, धर्मनो उपदेश देनार गुरु, हेय उपादेय एटले त्याग करवा योग्य अने ग्रहण करवा योग्य वस्तुने जणावणार धर्म, दीक्षा अंगीकार करवा रूप व्रत, बाह्य अने धान्यंतर ए बार प्रकार, तप, मन वचन अने काय ए त्रण प्रकारनी गुप्ति, राजा नीखारी. धर्मने धारण करनार पुरुष तथा मोदना साधन नूत ज्ञान, दर्शन श्रने चारित्र रूप त्रण रत्नोने धारण करनारी स्त्री; ए सर्वे शीलमा प्रवर्त्या सताज निरंतर पूजाय . अर्थात् शील पालवाथीज म्होटाइने पामे के अने समतिमां जवाने योग्य थाय बे. ॥५॥
हवे बे गाथाएं करी बीजा पुरुषोने शीलमा प्रवर्त्ताववाने माटे 5. कारकारक होवाथी शीलथी व्याप्त थएला पुरुषोने कहे डे.
दातृशिरोमणयः केके न भूताः जगति सत्पुरुषाः दायारैसिरोमणियो, केके ने दुआ जयंमि सँप्पुरिसा ॥