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वंकचूलनी कथा
२७ वंकचूले उत्तर श्राप्यो के, “ हे देव ! बीजाउँने त्यां खातर पाडवाथी खेद पामेलो हुं अव्यना मोहथी घरोली- पुंकु काली आपना महेल उपर चड्यो हतो. त्यां बीलाडी जेम दूधने देखे तेम महादेवीए मने दीगे. हे राजन् ! श्राप म्हारा उपर दया करो; कारण पोते बलवंत बतां पड़ी विग्रह शो ?” राजाए कह्यु. " हुँ त्हारा उपर प्रसन्न थएलो बु; माटे श्रा म्हारी पट्टराणी तने आपुं बुं; तेने तुं ग्रहण कर.” चोरे कडं. “ हे देव ! जे श्रापनी पट्टराणी, ते म्हारे माता समान बे." तेनां श्रावां वचन सांजली राजाए क्रोधथी रक्षकोने श्राज्ञा करी के, “एने शूली उपर चडावी मारी नाखो.” राजाए श्राप्रमाणे कयुं तो पण ते चोर जेम सम्यक्त्वने धारण करनारो पुरुष न्यायथी चले नहीं तेम पोताना धारेला अनिग्रह (नियम) थी चल्यो नहीं. राजाए गुप्तरीते सुजटना नायकने समजाव्यो के, “ एने मारवो नथी; पण फक्त जय देखाडवो ."
पड़ी चोरने नगरीमा फेरवी शूली पासे लश् गया थने तेना उपर चडाववाने माटे पण तैयार कस्यो उतां ते पोताना अनिग्रहने काली रह्यो, तेथी सुनटो तेने पालो राजा पासे लाव्या. राजाए प्रसन्न थ तेने पुत्रसमान मानी युवराज पदवी थापी. पड़ी तो ते वंकचूल पोतानी स्त्री अने ब्हेनसहित सुखेथी रहेवा लाग्यो. वली ते विचार करवा लाग्यो के, "मने धन्य डे; म्हारो मनुष्यजन्म सफल थयो बे; परंतु जो ते मुनिने फरीथी दे तो हुँ निश्चय तेमनी पासे उत्तम धर्म श्रादरूं.” था प्रमाणे ते विचार करतो हतो, एवामां ते चंयशा सूरि विहार करता करता त्यां श्राव्या. वंकचूले तेमनी वंदना करी धर्मोपदेश सांजल्यो. पली ते दिवसथी श्रारंजीने जेना अरिहंत प्रजु देव जे; साधु गुरु ने श्रने जीवदया धर्म . एवो ते वंकचूल श्रावकधर्म पालवा लाग्यो भने गीतार्थ श्रावक थयो. पड़ी तो साधु श्रने सामि श्रावक विगेरेना जक्त श्रने देवपूजा करवामां तत्पर एवा ते वंकचूलने उजायिनी नगरीनी पासेना शाली गाममा रहेनारा जिनदास नामना श्रावक साये घणी मित्रा थ.
को वखते वंकचूले को एक महा जयंकर एवा पसीपतिनी साथे