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करोगे तो यह मूर्ति उसी स्थान पर स्थित हो जाएगी ।' रत्नसार श्रावक को इस तरह की सूचना देकर देवी अपने स्वस्थान पर वापिस लौट जाती है ।
रत्नसार श्रावक देवी की कृपा से प्रतिमा को लेकर आदेशानुसार आगे-पीछे या बाजू में देखे बिना अस्खलित गति से कच्चे सूत के तार से बाँधे गए इस बिंब को जिनालय के मुख्य द्वार तक लाते है । उस अवसर पर वह सोचता है कि जिनालय में स्थित पूर्व की लेपमय प्रतिमा को हटाकर अंदर की भूमि की प्रमार्जना कर सफाई कर नवीन प्रतिमा को स्थापित करूँ, प्रासाद के अंदर की सफाई कर बाहर आकर रत्नसार श्रावक ने जब नवीन प्रतिमा को अंदर ले जाने का प्रयास किया, तब वह प्रतिमा उसी स्थान पर मेरुपर्वत की तरह करोडों मनुष्यों से भी चलायमान न हो सके, उस तरह अचल बन गयी। इस पर रत्नसार श्रावक आहार पानी का त्याग कर देवी की साधना करने लगा । तब सात दिन बाद देवी प्रकट होती है और कहती है, 'हे वत्स ! मैंने तो तुम्हें पहले ही कहा था कि मार्ग में कही पर भी विराम किए बगैर इस प्रतिमा को ले जाकर पधराना ! व्यर्थ प्रयास करने का कोई अर्थ नहीं । अब किसी भी हालत में यह प्रतिमा नहीं हटेगी। अब इस प्रतिमा को यथावत रखकर पश्चिमाभिमुख द्वारवाला प्रासाद बनवाओ! अन्य तीर्थ में तो उद्धार करने वाले दूसरे कई मिलेंगे, परन्तु हाल में इस तीर्थ के उद्धारक तुम ही हो इसीलिए इस कार्य में विलंब मत करो । '
रत्नसार श्रावक आज्ञानुसार पश्चिमाभिमुख प्रासाद बनवाता है। सकल संघ के साथ हर्षोल्लास पूर्वक प्रतिष्ठा महोत्सव करवाता है, जिसमें आचार्यों के द्वारा सूरिमंत्र के पदों से आकर्षित बने हुए देवताओं ने उस बिंब और चैत्य को अधिष्ठायक युक्त बनाया । रत्नसार श्रावक अष्टकर्मनाशक अष्टप्रकारी पूजा कर, लोकोत्तर ऐसे जिनशासन की गगनचुंबी गरिमा को दर्शानेवाली महाध्वजा को लहराकर, उदारतापूर्वक दानादि विधि पूर्ण कर, भक्ति से नम्र
गिरनार तीर्थ
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