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से भरे सारे यात्री गजेन्द्रपद कुंड (हाथी पगला) से शुद्ध जल निकालकर स्नान आदि कार्य करके उत्तम वस्त्र धारण कर गजपदकुंड के जल को कुंभ में ग्रहण कर, जैन धर्म में दृढ ऐसे विमलराजा के द्वारा रैवतगिरि पर स्थापित लेपमयी श्री नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा के काष्ठमय प्रासाद में प्रवेश करते हैं। सभी यात्री हर्षविभोर बनकर कुंड से कुंभ भर-भर कर प्रक्षालन कर रहे थे। इस अवसर पर अनेक बार देवताओं और पुजारी के द्वारा निषेध करने पर भी उनकी बात की अवमानना कर, हर्ष के आवेश में ज्यादा पानी के द्वारा प्रक्षालन करने से जल की एकधारा के प्रवाह के प्रहार से लेप्यमयी प्रतिमा का लेप गलने लगा और थोडी ही देर में वह प्रतिमा गिली मिटी के पिंड स्वरूप बनने लगी। इस दृश्य को देखकर रत्नसार श्रावक आघात के साथ शोकातुर बना और मूर्छित हुआ। इससे सकल संघ शोक में डूब गया।
रत्नसार श्रावक पर शीतल जल का उपचार करने पर थोडी देर में वो स्वस्थ बन गया। प्रभुजी की प्रतिमा गलने से रत्नसार श्रावक आकुल व्याकुल होकर विलाप करते हुए स्वयं को महापापी और तीर्थ विनाशी मानने लगा। इस भारी मन के साथ रत्नसार श्रावक चारों आहार का त्याग कर वहीं प्रभु के सामने आसन लगा कर बैठ गये। समय बीतता गया। अनेक विघ्न आने पर भी रत्नसार श्रावक अपने संकल्प में मजबूत रहा। रत्नसार श्रावक की निश्चलता से प्रसन्न होकर शासन अधिष्ठायिका देवी श्री अंबिका देवी एक महिने के अन्त में प्रगट हुई। देवी कहती है, 'हे वत्स! तू धन्य है जो इस तीर्थ का उद्धार तेरे हाथों से होना है। उस प्रतिमा का पुराना लेप नाश होने पर नया लेप होता ही रहता है। जिस तरह जीर्णवस्त्र निकालकर नये वस्त्र ग्रहण किए जाते हैं, उसी प्रकार तुम भी उस प्रतिमा का नया लेप कराकर पुनः प्रतिष्ठा करवाओ!' देवी के वचन सुनकर रत्नसार श्रावक कहता है कि, 'माँ! आप ऐसा न उच्चारो! पूर्वबिंब का नाश
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त्रितीर्थी